Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 129
________________ कारणों की कोई सीमा नहीं है, तथापि शास्त्रकार ने मोहनीय कर्मबंध के हेतुभूत कारणों के तीस भेदों का उल्लेख किया है। उनमें दुरध्यवसाय की तीव्रता और क्रूरता इतनी मात्रा में होती है कि कभी-कभी ऐसे मोहनीय कर्म का बंध भी हो जाता है, जिससे आत्मा ७० कोटा-कोटि सागरोपम तक संसार में परिभ्रमण करता है। ऐसे ३० स्थान हैं-त्रस प्राणियों को जल में डुबाकर मारने से, श्वास रोक देने से, धुआँ करके मारने से, सिर पर प्रहार करने से, मारकर(छलकर) हंसने से, मायाचार करने से, मिथ्या आक्षेप करने से, ब्रह्मचारी नहीं होने पर भी स्वयं को ब्रह्मचारी बतलाने से, नेता आदि लोकप्रिय व्यक्ति को मारने से, पापों से विरत दीक्षार्थी को और संयत तपस्वी को धर्म भ्रष्ट करने से, जिनेन्द्र देव का अवर्णवाद करने से, भव्य जीवों को भ्रष्ट करने से, तपस्वी नहीं होते हुए भी स्वयं को तपस्वी कहने से, मतभेद पैदा करने से, देवताओं का अवर्णवाद करने से और अपने आपको बहुश्रुत एवं स्वाध्यायी बता कर आत्मप्रशंसा करने से महामोहनीय कर्म का बंध होता है। दसवीं दशा- इसका नाम आयति स्थान है। इसमें विभिन्न निदानों का वर्णन है। निदान का अर्थ है-मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्पा निदान के कारण मानव की इच्छाएँ भविष्य में भी निरन्तर बनी रहती हैं, जिससे वह जन्म-मरणं की परम्परा से मुक्त नहीं हो पाता। भविष्य कालीन जन्म-मरण की दृष्टि से प्रस्तुत उद्देशक का नाम आयतिस्थान रखा गया है। आय का अर्थ है- लाभ। जिस निदान से जन्म-मरण का लाभ होता है, उसका नाम आयति है। इस दशा के अन्तर्गत नव निदान बताए गए हैं१. निर्ग्रन्थ द्वारा पुरुष के भोगों का निदान। २. निर्ग्रन्थी द्वारा स्त्री के भोगों का निदान। ३. निर्ग्रन्थ द्वारा स्त्री के भोगों का निदान। ४. निर्ग्रन्थी द्वारा पुरुष के भोगों का निदान। ५. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान। ६. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान (भिन्न रूप) ७. संकल्पानुसार दैविक सुख का निदान (भिन्न रूप) ८. श्रावक अवस्था प्राप्ति का निदान ६. साधु जीवन प्राप्ति का निदान दशाश्रुतस्कन्ध और अन्य आगमों का तुलनात्मक अध्ययन आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने आचार्य भद्रबाहु को दशाश्रुतस्कन्ध 116 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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