Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 99
________________ अब नाटक के संबंध में चर्चा की जा रही है। स्थानांग में चार प्रकार के नाट्यों का वर्णन मिलता है- अंचित, रिभित, आरभट, भसोला" इसी से मिलता-जुलता शब्द कर्ण भरतनाट्यशास्त्र में उपलब्ध होता है। कर्ण का अर्थ हैअंग और प्रत्यंग की क्रियाओं को एक साथ करना। अंचित को तेईसवाँ कर्ण माना गया है।" राजप्रश्नीय में यह पच्चीसवाँ भेद माना गया है। रिभित के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। आरभट- माया, इन्द्रजाल, संग्राम, क्रोध, उद्धांत प्रभृति चेष्टाओं से युक्त तथा वध, बंधन आदि से उद्धत नाटक आरभटी है। साहित्यदर्पण में इसके चार प्रकार बताये गये हैं।" राजप्रश्नीय में आरभट को नाट्यभेद का अठारहवां प्रकार माना गया है। भसोल को राजप्रश्नीय में उनतीसवां प्रकार माना गया है। इन सबके अलावा राजप्रश्नीय सूत्र में बत्तीस प्रकार की नाट्यविधि का उल्लेख मिलता है। सूर्याभदेव के द्वारा देवकुमारों और देवकुमारियों को नाट्यविधि के प्रदर्शन की आज्ञा दिये जाने पर वे भगवान महावीर तथा अन्य श्रमण निर्ग्रन्थों के समक्ष बत्तीस नाट्य दिखलाते हैं। उत्तराध्ययन टीका में नाटकों का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के पदासीन होने के समय नट मधुकरीगीति नामक नाट्यविधि प्रदर्शित करता है। सौधर्म इन्द्र के समक्ष सुधर्मा सभा में 'सौदामिनी' नाटक करने का भी उल्लेख वहाँ प्राप्त होता है।" नट स्त्री का वेश धारण करके नृत्य करते थे।" रास (रासपेक्खण) का भी उल्लेख मिलता है। _ निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि संगीतकला का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध है। जैन वाङ्मय में अनेक ध्वनियों एवं गायन शैलियों की चर्चा है। आज अपेक्षा है कि संस्कृति विभाग इस विषय पर ध्यान देकर अन्वेषण, शोध करे जिससे अनेक नये तथ्य उद्घाटित हों एवं आधुनिक संगीत में उन्हें जोड़कर उसे गौरवपूर्ण बनाया जा सके। संदर्भ 01. ज्ञातधर्मकथा 1, पृष्ठ 29, समवायांग पृ.77-अ, औपपातिक सूत्र 40, पृ.186, राजप्रश्नीय 211, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 2, पृ. 136 आदि। 02. खेल-खेल में (वट्टेहिं रमतेण) अक्षरज्ञान और गणित सिखाने का उल्लेख मिलता है। पृ.553 - आवश्यक चूर्णि 03. कामशास्त्र (1.3) में उल्लिखित 64 कलाओं और 72 कलाओं की तुलना- बेचरदास, भगवान महावीर नी धर्मकथाओं, पृ. 193 तथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका (2 पृ.139) 04. संगीतरत्नाकर-1.21 स्वाध्याय शिक्षा 86 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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