Book Title: Swadhyaya Shiksha
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Akhil Bharatiya Sahitya Kala Manch

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Page 111
________________ रूप, रसादि की संवेदनाएं प्राप्त करता हुआ धीरे-धीरे उनके विशिष्ट स्वरूप को पहचानना सीखता है। इस स्तर पर मतिज्ञान का कारण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम एवं पूर्वानुभव के संस्कार होते हैं। मतिज्ञान का यह विकास बहुत ही स्थूल होता है तथा उसमें स्पष्टता एवं व्यापकता श्रुतज्ञानपूर्वक ही आती है। एक बच्चे को विभिन्न सम्प्रत्यय समाज में रहते हुए अन्य व्यक्तियों के व्यवहार के निरीक्षण तथा प्रशिक्षण पूर्वक प्राप्त होते हैं। उसे अन्य व्यक्तियों द्वारा विभिन्न वस्तुओं को पहचानना सिखाया जाता है तथा इस प्रकार वह वस्तु को विशिष्ट और अधिक विशिष्ट स्वरूप में पहचानना सीखता है। उदाहरण के लिये एक बच्चे को एक इन्द्रिय विशेष से सन्निकृष्ट पदार्थ के रूप, आकारादि का मतिज्ञान अश्रुतनिश्रित रूप से होता है, लेकिन "यह वृक्ष है", "नीम का वृक्ष है" आदि रूप से वस्तु का प्रत्यक्ष करना परोपदेशपूर्वक ही सीखता है। किसी क्षेत्र विशेष में जैसे रोगी का प्रत्यक्ष करते समय अथवा किसी कलाकृति का प्रत्यक्ष करते समय एक सामान्य व्यक्ति और एक विशेषज्ञ के प्रत्यक्ष में व्यापक अन्तर होता है जिसका कारण व्यक्ति के आवरण कर्मों के क्षयोपशम में अन्तर के साथ ही साथ उनकी शिक्षा का अन्तर भी है। यदि किसी बच्चे का पालन-पोषण मानवीय समाज से दूर रख कर किया जाय अथवा उसकी शिक्षा पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाय तो उसके मतिज्ञान का विकास असंभव है। यद्यपि व्यक्ति के मतिज्ञान के विकास में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है तथापि उसका समस्त ज्ञान प्रशिक्षणजन्य नहीं होता। उसमें बहुत से ज्ञान की क्षमता निरन्तर किसी कार्य को करते हुए अथवा गुरुजनों की विनय, सेवा आदि से उत्पन्न होती है तथा शिक्षा द्वारा यह क्षमता उत्पन्न नहीं की जा सकती। इस प्रकार के मतिज्ञान के चार भेद हैं- औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी बुद्धि। किसी परिस्थति विशेष में जो बुद्धि विशेष क्षयोपशम होने पर स्वतः उत्पन्न हो तथा शास्त्राभ्यास, किसी क्रिया के निरन्तर सम्पादन आदि की अपेक्षा से रहित हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहा जाता है। किसी विषय में जो योग्यता गुरु की विनय, सेवा आदि से उत्पन्न होती है, उसे वैनयिकी बुद्धि कहा जाता है। जो कार्य गुरु के उपदेश बिना किये जाते हैं, उन्हें कर्म तथा जिन कार्यों के लिये प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उन्हें शिल्प कहा जाता है। कर्म नित्य तथा शिल्प कादाचित्क होते हैं। इनके निरन्तर अभ्यास पूर्वक जो इनके प्रति नवीन ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे कर्मजा बुद्धि कहा जाता है। निरन्तर गमन करना परिणाम है। सुदीर्घ काल तक निरन्तर आलोचनात्मक जो विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है अथवा एक अनुभवी व्यक्ति की स्वाध्याय शिक्षा 98 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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