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आचारांग की सूक्तियाँ
उन्नीस
७९. जो बन्धन के हेतु हैं, वे ही कभी मोक्ष के हेतु भी हो सकते हैं और जो
मोक्ष के हेतु हैं, वे ही कभी बन्धन के हेतु भी हो सकते हैं।
जो व्रत उपवास आदि संवर के हेतु हैं, वे कभी कभी संवर के हेतु नहीं भी हो सकते हैं और जो आस्रव के हेतु हैं, वे कभी-कभी आस्रव के हेतु नहीं भी हो सकते हैं।
(आस्रव और संवर आदि सब मूलतः साधक के अन्तरंग भावों पर
आधारित हैं।) ८०. मुत्यु के मुख में पड़े हुए प्राणी को मृत्यु न आए, यह कभी नहीं हो
सकता।
८१.
हम ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्ररूपणा करते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं कि--
किसी भी प्राणी, किसी भी भूत, किसी भी जीव और किसी भी सत्त्व को न मारना चाहिए, न उनपर अनुचित शासन करना चाहिए, न उन को गुलामों की तरह पराधीन बनाना चाहिए, न उन्हें परिताप देना चाहिए और न उनके प्रति किसी प्रकार का उपद्रव करना चाहिए।
उक्त अहिंसा धर्म में किसी प्रकार का दोष नहीं है, यह ध्यान में रखिए । अहिंसा वस्तुत: आर्य (पवित्र) सिद्धान्त है।
८२. सर्वप्रथम विभिन्न मत-मतान्तरों के प्रतिपाद्य को जानना चाहिए, और फिर हिंसाप्रतिपादक मतवादियों से पूछना चाहिए कि---
" हे प्रवादियों ! तुम्हें सुख प्रिय लगता है या दु:ख ?" __ " हमें दुःख अप्रिय है, सुख नहीं "--यह सम्यक् स्वीकार कर लेने पर उन्हें स्पष्ट कहना चाहिए कि " तुम्हारी ही तरह विश्व के समस्त प्राणी, जीव, भूत और सत्त्वों को भी दुःख अशान्ति (व्याकुलता) देने वाला है, महाभय का कारण है और दुःखरूप है।"
८३. अपने धर्म से विपरीत रहने वाले लोगों के प्रति भी उपेक्षाभाव
(=मध्यस्थता का भाव) रखो। __ जो कोई विरोधियों के प्रति उपेक्षा = तटस्थता रखता है, उद्विग्न नहीं होता है, वह समग्र विश्व के विद्वानों में अग्रणी विद्वान् है ।
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