Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 211
________________ सूक्ति त्रिवेणी एक सौ चौरानवे ८७. धिती तु मोहस्स उवसमे होति । -नि. भा० ८५ ८८. सुहपडिबोहा णिद्दा, दुहपडिबोहा य णिद्दणिद्दा य ।। -नि० भा० १३३ ८९. णा णज्जोया साहू । -नि० भा० २२५ -बह० भा०३४५३ ९०. जा चिट्ठा सा सव्वा संजमहेउं ति होति समणाणं । --नि० भा० २६४ ९१. राग-द्दोसाणुगता, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा । अराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं । --नि० भा० ३६३ --बृह० मा० ४९४३ ९२. संसारगड्डपडितो णाणादवलंबितुं समारुहति । __ मोक्खतडं जध पुरिसो, वल्लिविताणेण विसमाओ। --नि० भा० ४६५ ९३. ण हु होति सोयितव्वो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होइ सोयियव्वो, जो संजम-दुब्बलो विहरे । -नि० भा० १७१७ --बृह० भा० ३७३९ ९४. णेहरहितं तु फरुसं । --नि० भा० २६०८ ९५. अलं विवाएण णे कतमुहेहिं । --नि० भा० २६१३ ९६. आसललिअं वराओ, चाएति न गद्दभो काउं ।। ---नि० भा० २६२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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