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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
दो सौ एक
११३. उत्सर्ग मार्ग में समर्थ मुनि को जिन बातों का निषेध किया गया है,
विशिष्ट कारण होने पर अपवाद मार्ग में वे सब कर्तव्य रूप से विहित
१९४. जिनेश्वरदेव से न किसी कार्य की एकांत अनुज्ञा दी है और न एकांत
निषेध ही किया है । उनकी आज्ञा यही है कि साधक जो भी करे वह सच्चाई-प्रामाणिकता के साथ करे ।
११५. ज्ञान आदि की साधना देश काल के अनुसार उत्सर्ग एवं अपवाद मार्ग के
द्वारा ही सत्य (सफल) होती है ।
११६. जिस किसी भी अनुष्ठान से रागादि दोषों का निरोध होता हो तथा पूर्व
संचित कर्म क्षीण होते हों, वह सब अनुष्ठान मोक्ष का साधक है। जैसे कि रोग को शमन करने वाला प्रत्येक अनुष्ठान चिकित्सा के रूप में
आरोग्यप्रद है। ११७. सूत्र का अर्थ अर्थात् शास्त्र का मूलभाव बहुत ही सूक्ष्म होता है, वह
आचार्य के द्वारा प्रतिबोधित हुए विना नहीं जाना जाता।
११८. विना विशिष्ट प्रयोजन के अपवाद दोषरूप है, किंतु विशिष्ट प्रयोजन की
सिद्धि के लिए वही निर्दोष है ।
११९. जो जिसके योग्य हो, उसे बही देना चाहिए।
१२०. मनुष्यो ! सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा वधमान रहती
है। जो सोता है वह सुखी नहीं होता, जाग्रत रहने वाला ही सदा सुखी रहता है।
१२१. सोते हुए का श्रुत-ज्ञान सुप्त रहता है, प्रमत्त रहने वाले का ज्ञान शंकित
एवं स्खलित हो जाता है । जो अप्रमत्त भाव से जाग्रत रहता है, उसका ज्ञान सदा स्थिर एवं परिचित रहता है।
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