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दो सौ तेईस
चर्णिसाहित्य की सूक्तियां ७३. तप का मूल धृति अर्थात् धैर्य है।
७४. प्रमाद भाव से किया जाने वाला अपवादसेवन दर्प होता है और वही
अप्रमाद भाव से किया जाने पर कल्प = आचार हो जाता है ।
७५. प्राणातिपात, होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न
होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।
७६. ज्ञानादि की अपेक्षा से किया जाने वाला अकल्पसेवन भी कल्प है।
७७. माया और लोभ से राग होता है।
क्रोध और मान से द्वेष होता है ।
७८. रोग हो जाने पर बहुत अधिक संयम की विराधना होती है।
७९. जीवन पथ पर निर्भय होकर विचरण करना चाहिए ।
८०. स्नेहरहित निष्ठुर वचन खिसा (फटकार) है, स्नेहसिक्त मधुर वचन
उपालंभ (उलाहना) है।
८१. समभाव सामायिक है, अतः कषाययुक्त व्यक्ति का सामायिक विशुद्ध नहीं
होता।
८२. कम खाना गुणकारी है।
८३. परमार्थ दृष्टि से पुण्य भी मोक्ष प्राप्ति में विघातक = बाधक है ।
८४. जहाँ आत्मा है, वहाँ उपयोग (चेतना) है, जहाँ उपयोग है, वहाँ आत्मा है।
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