________________
सूक्ति कण
दो सौ उनतीस
८. गृहस्थ को अपने परिवार में मेढीभूत (स्तंभ के समान उत्तरदायित्व
वहन करने नाला), आधार, आलंबन और चक्षु अर्थात् पथ-प्रदर्शक बनना
चाहिए। ९. साधक कष्टों से जूझता हुआ काल = मृत्यु से अनपेक्ष होकर रहे ।
१०. साधक संयम और तप से आत्मा को सतत भावित करता रहे। .
११. पत्नी -धर्म में सहायता करनेवाली, धर्म की साथी, धर्म में अनुरक्त तथा
सुख दुःख में समान साथ देने वाली होती है।
१२. जीवन पानी के बुलबुले के समान और कुशा की नोंक पर स्थित जलबिंदु
के समान चंचल है।
१३. संत जन आकाश के समान निरवलेप और पवन के समान निरालंब होते
१४. राजनीति का सूत्र है--'नहीं जीते हुए शत्रुओं को जीतो और जीते हुओं का
पालन करो।'
१५. अच्छे कर्म का अच्छा फल होता है।
बुरे कर्म का बुरा फल होता है ।
१६. प्रभो! आपने धर्म का उपदेश देते हुए उपशम का उपदेश दिया और
उपशम का उपदेश देते हुए विवेक का उपदेश दिया।
१७. संसार के सब मनुष्यों और सब देवताओं को भी वह सुख प्राप्त नहीं है,
जो सुख अव्याबाध स्थिति को प्राप्त हुए मुक्त आत्माओं को है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org