Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 264
________________ सूक्ति कण दो सौ सेंतालीस १८४. अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ--उत्पत्ति स्थान १०५, ब्रह्म का अर्थ है--आत्मा, आत्मा में चर्या-रमण करना-ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचारी की पर देह में प्रवृत्ति और तृप्ति नहीं होती। १०६. वात, पित्त आदि विकारों से मनुष्य वैसा उन्मत्त नहीं होता, जैसा कि कषायों से उन्मत्त होता है । कषायोन्मत्त ही वस्तुतः उन्मत्त है। १०७. क्रुद्ध मनुष्य राक्षस की तरह भयंकर बन जाता है । १०८. क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारक (नरक के जीव) जैसा आचरण करने लग जाता है । १०९. निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन-सभी को सदा प्रिय लगता है। वह ज्ञान, यश और संपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है। ११०. एक माया (कपट)--हजारों सत्यों का नाश कर डालती है । १११. जिन शासन (आगम) में सिर्फ दो ही बातें बताई गई हैं-मार्ग और मार्ग का फल । ११२. मन रूपी जल, जब निर्मल एवं स्थिर हो जाता है, तब उसमें आत्मा का दिव्य रूप झलकने लग जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 262 263 264 265