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चूर्णिसाहित्य की सूक्तियां
दो सौ इक्कीस
६०. प्राणियों का हित अहिंसा है।
६१. स्व और पर को बोध कराने वाला ज्ञान-श्रुत-ज्ञान है ।
६२. खांड मिला हुआ मधुर दूध भी पित्तज्वर में ठीक नहीं रहता।
६३ वस्तु स्वरूप को अनेक दृष्टियों से जानने वाला ही विज्ञाता है।
६४. संहनन (शारीरिक शक्ति) क्षीण होने पर धर्म करने का उत्साह नहीं
होता।
६५. गुरु, विनयादि गुणयुक्त शिष्य को ज्ञानदान कर देने पर अपने गुरु के ऋण
से मुक्त हो जाता है। ६६. साधक के आहार-विहार आदि का विधान मुक्ति के हेतु किया गया
६७. शास्त्र का अध्ययन उचित समय पर किया हुआ ही निर्जरा का हेतु होता
है, अन्यथा वह हानि कर तथा कर्मबंध का कारण बन जाता है ।
६८. विनयशील साधक की विद्याएं यहाँ वहाँ ( लोक परलोक में ) सर्वत्र
सफल होती हैं। ६९. विवेकज्ञान का विपर्यास ही मोह है।
७०. अज्ञान से संचित कर्मों के उपचय को रिक्त करना--चारित्र है।
७१. जिस साधना से पाप कर्म तप्त होता है, वह तप है।
७२. भाव-दृष्टि से ज्ञानावरण (अज्ञान) आदि दोष आभ्यंतर पंक हैं ।
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