Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra
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सूक्ति त्रिवेणी
एक सौ अट्ठानवे १०५. इंदियाणि कसाये य, गारवे य किसे कुरु ।
णो वयं ते पसंसामो, किसं साह सरीरगं ।।
--नि० भा० ३७५८
१०६. भण्णति सज्झमसज्झं, कज्जं सज्झं तू साहए मइमं । अविसझं सातो, किलिस्सति न तं च साहेई ।।
--नि० भा० ४१५७
बृह० भा० ५२७९ १०७. मोक्खपसाहणहेतू, णाणादि तप्पसाहणो देहो । देहट्ठा आहारो, तेण तु कालो अणुण्णातो ।।
-नि० भा० ४१५९
-बृह० भा० ५२८१ १०८. णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो उ अन्नाणी।
-नि० भा० ४७९१
--बृह० भा० ९३१ १०९. सुहसाहगं पि कज्ज करणविहूणमणुवायसंजुत्तं । अन्नायऽदेसकाले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥
-नि भा० ४८०३
-बृह० भा० ९४४ ११०. नखेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्ठितो रुक्खो।। दुच्छेज्जो वड्ढंतो, सो च्चिय वत्थुस्स भेदाय ।।
-नि० भा० ४८०४
-बह० मा० ९४५ १११. संपत्ती व विवत्ती व, होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प । अणुपायओ विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ।।
-नि० भा० ४८०८
-बृह० भा० ९४९ ११२. जतिभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चयो कम्मे ।
-नि० भा० ५१६४ -बृह० भा० २५१५
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