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सूत्रकृतांग की सूक्तियां
तेतालीस
८१. जिस प्रकार मृगशावक सिंह से डर कर दूर-दूर रहते हैं, उसी प्रकार बुद्धिमान धर्म को जानकर पाप से दूर रहे |
८२. अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है ।
८३. किसी के भी साथ वैर विरोध न करो ।
८४. वस्तुत: सूर्य न उदय होता है, न अस्त होता है और चन्द्र भी न बढता है, न घटता है । यह सब दृष्टि भ्रम है ।
८५. जिस प्रकार अन्धा पुरुष प्रकाश के होते हुए भी नेत्रहीन होने के कारण रूपादि कुछ भी नहीं देख पाता है, इसी प्रकार प्रज्ञाहीन मनुष्य शास्त्र के समक्ष रहते हुए भी सत्य के दर्शन नहीं कर पाता ।
८६. ज्ञान और कर्म ( विद्या एवं चरण) से ही मोक्ष प्राप्त होता है ।
८७. अज्ञानी मनुष्य कर्म ( पापानुष्ठान ) से कर्म का नाश नहीं कर पाते, किन्तु ज्ञानी पुरुष अकर्म ( पापानुष्ठान के निरोध) से कर्म का क्षय कर देते हैं ।
८८. सन्तोषी साधक कभी कोई पाप नहीं करते ।
८९. तत्त्वदर्शी समग्र प्राणीजगत् को अपनी आत्मा के समान देखता है ।
९०. ज्ञानी आत्मा ही 'स्व' और 'पर' के कल्याण में समर्थ होता है ।
९१. अभिमानी अपने अहंकार में चूर होकर दूसरों को सदा बिम्बभूत ( परछाई के समान तुच्छ) मानता है ।
९२. जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह मूर्खबुद्धि ( बालप्रश) है ।
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