________________
आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां
एक सौ तिरेसठ
२५. अभव्य जीव चाहे कितने ही शास्त्रों का अध्ययन कर ले, किंतु फिर भी वह
अपनी प्रकृति (स्वभाव) नहीं छोडता । सांप चाहे कितना ही गुड-दूध पी
ले, किंतु अपना विषेला स्वभाव नहीं छोडता । २६. शास्त्र, ज्ञान नहीं है, क्योंकि शास्त्र स्वयं में कुछ नहीं जानता है। इसलिए
ज्ञान अन्य है और शास्त्र अन्य है ।
२७. चारित्र ही वास्तव में धर्म है, और जो धर्म है, वह समत्व है । मोह और
क्षोभ से रहित आत्मा का अपना शुद्ध परिणमन ही समत्व है ।
२८. आत्मा ही धर्म है, अर्थात् धर्म आत्मस्वरूप होता है ।
२९. आत्मा परिणम स्वभाव वाला है, इसलिए जब वह शुभ या अशुभ भाव में
परिणत होता है, तब वह शुभ या अशुभ हो जाता है । और, जब शुद्ध भाव में परिणत होता है, तब वह शुद्ध होता है ।
३०. कोई भी पदार्थ विना परिणमन के नहीं रहता है, और परिणमन भी विना
पदार्थ के नहीं होता है। ३१. जो सुख-दुख में समान भाव रखता है, वही वीतराग श्रमण शुद्धोपयोगी
कहा गया है। ३२. आत्मा ज्ञानप्रमाण (ज्ञान जितना) है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण (ज्ञेय जितना) है,
और ज्ञेय लोकालोकप्रमाण है, इस दृष्टि से ज्ञान सर्वव्यापी हो जाता है।
३३. जिसकी दृष्टि ही स्वयं अंधकार का नाश करने वाली है, उसे दीपक क्या
प्रकाश देगा? इसी प्रकार जब आत्मा स्वयं सुख-रूप है, तो उसे विषय
क्या सुख देंगे। ३४. जो सुख इन्द्रियों से प्राप्त होता है, वह पराश्रित, बाधासहित, विच्छिन्न,
बंध का कारण तथा विषम होने से वस्तुतः सुख नहीं, दुःख ही है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org