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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ सत्तासी
४७. पक्व (झगड़ालू) को पक्व के साथ नियुक्त नहीं करना चाहिए, किंतु शांत
के साथ रखना चाहिए, जैसे कि एक खंभे से दो मस्त हाथियों को नहीं बाँधा जाता और न एक पिंजरे में दो सिंह रखे जाते हैं ।
४८. धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है ।
४९. मन, वचन और काया के तीनों योग अयुक्त (अविवेकी) के लिए दोष के
हेतु हैं और युक्त (विवेकी) के लिए गुण के हेतु । .
५०. जिस संघ में न सारणा' है, न वारणा है और न प्रतिचोदना३ है वह संघ
संघ नहीं है, अतः संयम आकांक्षी को उसे छोड देना चाहिए ।
५१. जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए, जो
अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए -बस इतना मात्र जिन शासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है।
५२. सब प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग, सब प्राणियों के प्रति समता
और चित्त की एकाग्रतारूप समाधि-बस इतना मात्र मोक्ष है।
५३. जो कर्तव्य कल करना है वह आज ही कर लेना अच्छा है । मृत्यु अत्यंत
निर्दय है, यह कब आ जाए, मालूम नहीं ।
५४. धर्माचरण करने के लिए शीघ्रता करो, एक क्षणभर भी प्रमाद मत करो।
जीवन का एक एक क्षण विघ्नों से भरा है, इसमें संध्या की भी प्रतिक्षा नहीं करनी चाहिए।
१. कर्तव्य की सूचना : २. अकर्तव्य का निषेध । कर्तव्य के लिए कठोरता के साथ शिक्षा देना ।
३. भूल होने पर
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