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भाष्यसाहित्य की सूक्तियां
एक सौ नवासी
५५. बाहर में समान अपराध होने पर भी अन्तर में परिणामों की तीव्रता व
मन्दता सम्बन्धी तरतमता के कारण दोष की न्यूनाधिकता होती है।
५६. यह ठीक है कि जिनेश्वरदेव ने परपरिताप को दुःख का हेतु बताया है।
किंतु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जाने वाला परिताप इस कोटि में नहीं है, चूंकि वह तो स्व-पर का हितकारी होता है ।
५७. विनयपूर्वक पढ़ी गई विद्या, लोक परलोक में सर्वत्र फलवती होती है।
विन यहीन विद्या उसी प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार जल बिना धान्य की खेती। .
५८. हितैषियों के द्वारा हित की बात कहे जाने पर भी धूर्तों के द्वारा बहकाया
हुआ व्यक्ति (व्युद्ग्राहित) उसे ठीक नहीं समझता-अर्थात् उसे उल्टी समझता है।
५९. वस्तुतः रागद्वेष के विकल्प से मुक्त निर्विकल्प सुख ही सुख है ।
६०. एकाकी रहने वाले साधक के मन में प्रतिक्षण नाना प्रकार के विकल्प
उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं । अतः सज्जनों की संगति में रहना ही श्रेष्ठ है।
६१. जिस प्रकार जहरीले कांटों वाली लता से वेष्टित होने पर अमृत वृक्ष का
भी कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों को तिरस्कार करने और दुर्वचन कहने वाले विद्वान को भी कोई नहीं पूछता ।
६२. सभी नय (विचारदृष्टियाँ) अपने अपने स्थान (विचार केन्द्र) पर शुद्ध हैं.
कोई भी नय अपने स्थान पर अशुद्ध (अनुपयुक्त) नहीं है।
६३. पहले बुद्धि से परख कर फिर बोलना चाहिए। अंधा व्यक्ति जिस प्रकार
पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसी प्रकार वाणी बुद्धि की अपेक्षा रखती है।
६४. मन को अकुशल-अशुभ विचारों से रोकना चाहिए और कुशल-शुभ
विचारों के लिए प्रेरित करना चाहिए।
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