Book Title: Sukti Triveni
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 165
________________ एक सौ अडतालीस ७५. न नाणमित्तेण कज्जनिष्पत्ती । ७६. जाणतोऽवि य तरिउं, काइयजोगं न जुंजइ नईए । सो वुज्झइ सोएणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥ ७७. ७८. सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमेऽवि धारेइ । इ सालंबणसेवा, धारेइ जई असढभावं ॥ जह जह सुज्झइ सलिलं, तह तह रूवाई पासई दिट्ठी । इजह जह तत्तरुई, तह तह तत्तागमो होइ ॥ ८०. अइनिद्धेण विसया उइज्जति । - आव० नि० ११५१ ८२. चित्तस्सेग गया हवइ झाणं । ७९. जह दूओ रायाणं, णमिउं कज्जं निवेइउं पच्छा । वीसज्जिओ वि वंदिय, गच्छइ साहू वि एमेव ॥ - आव० नि० ११५४ Jain Education International सूक्ति त्रिवेणी For Private & Personal Use Only - आव० नि० ११६३ - आव० नि० ११८० ८१. थोवाहारो थोवभणिओ य, जो होइ थोवनिद्दो य । थोवो हि उवगरणो, तस्स हु देवा वि पणमंति || - आव० नि० १२३४ - आव० नि० १२६३ ८३. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवु त्ति एव कयबुद्धी । दुक्ख - परिकिलेसकरं, छिंद ममत्तं सरीराओ ॥ - आव० नि० १२६५ - आव० नि० १४५९ - आव० नि० १५४७ www.jainelibrary.org

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