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पैतालीस
सूत्रकृतांग की सूक्तियां ९३. चतुर वही है, जो कभी प्रमाद न करे।
९४. मुमुक्षु को कैसे-न-कैसे मन की विचिकित्सा से पार हो जाना चाहिए।
९५. सूर्योदय होने पर (प्रकाश होने पर) भी आँख के बिना नहीं देखा जाता
है, वैसे ही स्वयं में कोई कितना ही चतुर क्यों न हो, निर्देशक गुरु के अभाव में तत्त्वदर्शन नहीं कर पाता।
बुद्धिमान किसी का उपहास नहीं करता ।
उपदेशक सत्य को कभी छिपाए नहीं, और न ही उसे तोड़ मरोड
कर उपस्थित करे। ९८. साधक न किसी को तुच्छ-हल्का बताए और न किसी की झूठी प्रशंसा
करे। विचारशील पुरुष सदा विभज्यवाद अर्थात स्याद्वाद से युक्त वचन
का प्रयोग करे। १००. थोडे से में कही जाने वाली बात को व्यर्थ ही लम्बी न करे ।
१०१. साधक आवश्यकता से अधिक न बोले ।
१०२. सम्यग्दृष्टि साधक को सत्य दृष्टि का अपलाप नहीं करना चाहिए।
१०३. किसी भी प्राणी के साथ वैर विरोध न बढाएँ ।
१०४.
जिस साधक की अन्तरात्मा भावनायोग (निष्काम साधना) से शुद्ध है, वह जल में नौका के समान है, अर्थात् वह संसार सागर को तैर जाता है, उसमें डूबता नहीं है। जो नये कर्मों का बन्धन नहीं करता है, उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी नष्ट हो जाते हैं।
१०५.
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