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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ एक
८. बहुत नहीं बोलना चाहिए ।
९. यदि साधक कभी कोई चाण्डालिक = दुष्कर्म कर ले, तो फिर उसे छिपाने
की चेष्टा न करे। १०. बिना किसी छिपाव या दुराव के किये हुए कर्म को किया हुआ कहिए, तथा
नहीं किये हुए कर्म को न किया हुआ कहिए। ११. बार-बार चाबुक की मार खाने वाले गलिताश्व (अडियल या दुर्बल घोड़े)
की तरह कर्तव्य पालन के लिए बार बार गुरुओं के निर्देश की अपेक्षा मत रखो।
१२. बिना बुलाए बीच में कुछ नहीं बोलना चाहिये, बुलाने पर भी असत्य जैसा
कुछ न कहे। १३. अपने आप पर नियंत्रण रखना चाहिए। अपने आप पर नियंत्रण रखना
वस्तुतः कठिन है। अपने पर नियंत्रण रखने वाला ही इस लोक तथा परलोक में सुखी होता है।
१४. दूसरे वध और बंधन आदि से दमन करें, इससे तो अच्छा है कि मैं स्वयं ही
संयम और तप के द्वारा अपना (इच्छाओं का) दमन कर लू ।
१५. प्रज्ञावान् शिष्य गुरुजनों की जिन शिक्षाओं को हितकर मानता है, दुर्बुद्धि
दुष्ट शिष्य को वे ही शिक्षाएँ बुरी लगती हैं। १६. समय पर, समय का उपयोग (समयोचित कर्तव्य) करना चाहिए।
१७. विनीत बुद्धिमान शिष्यों को शिक्षा देता हुआ ज्ञानी गुरु उसी प्रकार प्रसन्न
होता है, जिस प्रकार भद्र अश्व (अच्छे घोड़े) पर सवारी करता हुआ घुडसवार।
१८. बाल अर्थात् जड़मूढ़ शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार खिन्न होता
हैं, जैसे अड़ियल या मरियल घोडे पर चढ़ा हुआ सवार । १९. अपने आप पर भी कभी क्रोध न करो।
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