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एक सौ पैंतीस
आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ ९. संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय हैं ।
१०. प्राणिमात्र को अभय करने के कारण संयम शीतगृह (वातानुकूलित गृह)
के समान शीत अर्थात् शान्तिप्रद है ।
११. अज्ञान-तप से कभी मुक्ति नहीं मिलती।
१२. अंधा कितना ही बहादुर हो, शत्रुसेना को पराजित नहीं कर सकता । इसी
प्रकार अज्ञानी साधक भी अपने विकारों को जीत नहीं सकता।
१३. एक साधक निवृत्ति की साधना करता है, स्वजन, धन और भोग-विलास
का परित्याग करता है, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता है, किंतु यदि वह मिथ्यादृष्टि है, तो अपनी साधना में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता।
१४. सम्यक्-दृष्टि के ही तप, ज्ञान और चारित्र सफल होते हैं।
१५. जो दंभी है, वह श्रमण नहीं हो सकता ।
१६. जिस प्रकार पुराने सूखे, खोखले काठ को अग्नि शीघ्र ही जला डालती है,
वैसे ही निष्ठा के साथ आचार का सम्यक् पालन करने वाला साधक कर्मों को नष्ट कर डालता है।
१७. विश्व--सृष्टि का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान (सम्यक्-बोध) है, ज्ञान
का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण--(शाश्वत आनंद की प्राप्ति ) है।
१८. साधक कर्म-बंधन से देश-मुक्त (अंशतः मुक्त) होता है और सिद्ध सर्वथा
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