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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ इकतालीस ३५. जिस तपस्वी ने कषायों को निगृहीत नहीं किया, वह बाल तपस्वी है । उसके तपरूप में किये गए सब कायकष्ट गजस्नान की तरह व्यर्थ हैं ।
३६. श्रमण धर्म का अनुचरण करते हुए भी जिसके क्रोध आदि कषाय उत्कट हैं, तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है, जैसा कि ईख का फूल ।
३७. क्षमा, विनम्रता, सरलता, निर्लोभता, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक क्रियाओं की परिशुद्धि-ये सब भिक्षु के वास्तविक चिन्ह हैं ।
३८. जो भिक्षु गुणहीन है, वह भिक्षावृत्ति करने पर भी भिक्षु नहीं कहला सकता । सोने का झोल चढ़ा देने भर से पीतल आदि सोना तो नहीं हो सकता !
३९. जिस प्रकार दीपक स्वयं प्रकाशमान होता हुआ अपने स्पर्श से अन्य सैंकडों दीपक जला देता है, उसी प्रकार सदगुरु - आचार्य स्वयं ज्ञान ज्योति से प्रकाशित होते हैं एवं दूसरों को भी प्रकाशमान करते हैं ।
४०. कर्मोदय से प्राप्त होने वाली जीवन की जितनी भी अवस्थाएँ हैं, वे सब बाह्य भाव हैं ।
४१. यदि शिष्य गुणसंपन्न है, तो वह अपने आचार्य के समकक्ष माना जाता है ।
४२. सुखी मनुष्य प्रायः जल्दी नहीं जग पाता ।
४३. दुर्जन दूसरों के राई और सरसों जितने दोष भी देखता रहता है, किंतु अपने बिल्व (बेल) जितने बड़े दोषों को देखता हुआ भी अनदेखा कर देता है ।
४४. मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा ( अर्थहीन रागद्वेषवर्द्धक वार्ता ) यह पांच प्रकार का प्रमाद है । इन से विरक्त होना ही अप्रमाद है ।
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