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उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ
एक सौ तेरह
७५. तप (चरित्र) की विशेषता तो प्रत्यक्ष में दिखलाई देती है, किन्तु जाति
की तो कोई विशेषता नजर नहीं आती।
७६. तप-ज्योति अर्थात अग्नि है, जीव ज्योतिस्थान है; मन, वचन काया के
योग जुवा = आहुति देने की कड़छी है, शरीर कारीषांग = अग्नि प्रज्वलित करने का साधन है; कर्म जलाए जाने वाला इंधन है, संयम योग शान्तिपाठ है । मैं इस प्रकार का यज्ञ--होम करता हूँ, जिसे ऋषियों ने श्रेष्ठ बताया है।
७७. धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शांतितीर्थ है, आत्मा की प्रसन्नलेश्या
मेरा निर्मल घाट है, जहाँ पर आत्मा स्नान कर कर्ममल से मुक्त हो जाता है।
७८. मनुष्य के सभी सुचरित (सत्कर्म) सफल होते हैं।
७९. सभी काम भोग अन्ततः दुःखावह (दुःखद) ही होते हैं।
८०. कर्म सदा कर्ता के पीछे-पीछे (साथ) चलते हैं।
८१. हे राजन् ! जरा, मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है।
८२. जैसे वृक्ष के फल क्षीण हो जाने पर पक्षी उसे छोडकर चले जाते हैं, वैसे
ही पुरुष का पुण्य क्षीण होने पर भोगसाधन उसे छोड़ देते हैं, उसके हाथ से निकल जाते हैं।
८३. अध्ययन कर लेने मात्र से वेद (शास्त्र) रक्षा नहीं कर सकते ।
८४. संसार के विषय भोग क्षण भर के लिए सुख देते हैं, किन्तु बदले में चिर
काल तक दुःखदायी होते हैं।
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