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दशवकालिक की सूक्तियाँ
'तिरानवे ५६. क्रोध को शान्ति से, मान को मृदुता-नम्रता से, माया को ऋजुता-सरलता
से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए।
५७. बड़ों (रत्नाधिक) के साथ विनयपूर्ण व्यवहार करो।
५८. अट्टाहास नहीं करना चाहिए।
५९. विना पूछे व्यर्थ ही किसी के बीच में नहीं बोलना चाहिए ।
६०. किसी की धुगली खाना--पीठ का मांस नोंचने के समान है, अतः किसी
की पीठ पीछ चुगली नहीं खाना चाहिए । ६१. आत्मवान् साधक दृष्ट (अनुभूत), परिमित, सन्देहरहित, परिपूर्ण (अधूरी
कटीछटी बात नहीं) और स्पष्ट वाणी का प्रयोग करे। किंतु, यह ध्यान में रहे कि वह वाणी वाचालता से रहित तथा दूसरों को उद्विग्न करने वाली न हो।
६२. हमेशा साधुजनों के साथ ही संस्तव-संपर्क रखना चाहिए।
६३. गुरुजनों की अवहेलना करने वाला कभी बंधमुक्त नहीं हो सकता।
६४. जिनके पास धर्म-पदधर्म की शिक्षा ले, उनके प्रति सदा विनयभाव रखना
चाहिए।
६५. धर्म का मूल विनय है, और मोक्ष उसका अन्तिम फल है।
६६. जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है,
वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ।
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