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यशवकालिक की सूक्तियाँ
१. धर्म श्रेष्ठ मंगल है। अहिंसा, संयम और तप-धर्म के तीन रूप हैं।
जिसका मन--(विश्वास) धर्म में स्थिर है, उसे देवता भी नमस्कार
करते हैं। २. श्रमण-भिक्षु गृहस्थ से उसी प्रकार दानस्वरूप भिक्षा आदि ले; जिस
प्रकार कि भ्रमर पुष्पों से रस लेता है। ३. हम जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की इस प्रकार पूर्ति करें कि किसी को
कुछ कष्ट न हो। ४. आत्मद्रष्टा साधक मधुकर के समान होते हैं, वे कहीं किसी एक व्यक्ति
या वस्तु पर प्रतिबद्ध नहीं होते । जहाँ रस (गुण) मिलता है, वहीं से
ग्रहण कर लेते हैं। ५. वह साधना कैसे कर पाएगा, जो कि अपनी कामनाओं-इच्छाओं को
रोक नहीं पाता? ६. जो पराधीनता के कारण विषयों का उपभोग नहीं कर पाते, उन्हें त्यागी
नहीं कहा जा सकता। ७. जो मनोहर और प्रिय भोगों के उपलब्ध होने पर भी स्वाधीनतापूर्वक
उन्हें पीठ दिखा देता है-त्याग देता है, वस्तुतः वही त्यागी है।
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