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सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ
पैतीस
३२. आत्महित का अवसर मुश्किल से मिलता है।
३३. प्रबुद्ध साधक ही मृत्यु की सीमा को पार कर अजर-अमर होते हैं।
३४. सच्चे साधक की दृष्टि में काम-भोग रोग के समान हैं।
३५. निर्बल व्यक्ति भार वहन करने में असमर्थ होकर मार्ग में ही कहीं खिन्न
होकर बैठ जाता है। ३६. साधक सुखाभिलाषी होकर काम-भोगों की कामना न करे, प्राप्त भोगों
को भी अप्राप्त जैसा कर दे, अर्थात उपलब्ध भोगों के प्रति भी
नि:स्पृह रहे । ३५. भविष्य में तुम्हें कष्ट भोगना न पडे, इसलिए अभी से अपने को विषय
वासना से दूर रखकर अनुशासित करो।
३८. जीवन-सूत्र टूट जाने के बाद फिर नहीं जुड़ पाता है।
३९. आत्मा (परिवार आदि को छोड़ कर) परलोक में अकेला ही गमनागमन
करता है। ४०. सभी प्राणी अपने कृत कर्मों के कारण नाना योनियों में भ्रमण करते हैं।
४१ जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है, वही महत्त्वपूर्ण है, अत: उसे सफल
बनाना चाहिए। ४२. अपनी बड़ाई मारनेवाला क्षुद्रजन तभी तक अपने को शूरवीर मानता
है, जब तक कि सामने अपने से बली विजेता को नहीं देखता है। ४३. दुर्बल एवं अज्ञानी साधक कष्ट आ पड़ने पर अपने स्वजनों को वैसे ही
याद करता है, जैसे कि लड़-झगड़ कर घर से भागी हुई स्त्री गुंडों या चोरों से प्रताडित होने पर अपने घर वालों को याद करती है।
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