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आचारांग की सूक्तियाँ
तेईस
९५.
अपने अन्तर (के विकारों) से ही युद्ध कर । बाहर के युद्ध से तुझे क्या मिलेगा?
९६. विकारों से युद्ध करने के लिए फिर यह अवसर मिलना दुर्लभ है ।
९७. कुछ लोग मामूली कहा-सुनी होते ही क्षुब्ध हो जाते हैं।
९८. शंकाशील व्यक्ति को कभी समाधि नहीं मिलती।
९९. जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है।
जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है।
(स्वरूप दृष्टि से सब चैतन्य एक समान हैं। यह अद्वैत भावना ही अहिंसा का मूलाधार है।)
१००.
जो आत्मा है, वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है । जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है।
१०१.
आत्मा के वर्णन में सबके सब शब्द निवृत्त हो जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं। वहाँ तर्क की गति भी नहीं है और न बुद्धि ही उसे ठीक तरह ग्रहण कर पाती है ।
१०२. न अपनी अवहेलना करो और न दूसरों की।
१०३. धर्म गाँव में भी हो सकता है, और अरण्य ( = जंगल) में भी । क्योंकि
वस्तुतः धर्म न गाँव में कहीं होता है और न अरण्य में, वह तो अन्तरात्मा में होता है।
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