Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 20
________________ १८] | सुखी होने का उपाय को जैसी यह इच्छा करता है वैसी सामग्री नहीं मिलती, प्रत्युत नहीं चाहता है वैसी सामग्री बिना इच्छा किये प्राप्त होती रहती है। कर्मबंधन की प्रक्रिया ऐसी है कि कर्म बंधते समय ही कुछ कर्म इसप्रकार से बंधते हैं कि अभी वर्तमान भव में भी उदय में आ जाते हैं और कंछकर्म इस प्रकार बंधते हैं कि उनके उदय के समय यह जीव अपनी देह परिवर्तन कर लेता है । अर्थात् इस भव को छोड़कर दूसरे भव में पहुँच जाता है, तो वे कर्म उस भव में फल देते हैं। उन कर्मों को हम पुण्य व पापकर्म के नाम से जानते हैं। पुण्य के फल में अनुकूल इच्छाओं की पूर्ति होती है तथा अच्छी नहीं लगने वाली सामग्री सहज ही नहीं आती और पापकर्म के उदय के फल में इच्छाओं के अनुसार सामग्री नहीं मिलती और प्रतिकूल स्थितियाँ नहीं चाहते हुए भी आ पड़ती हैं। इन सबसे यह नतीजा समझ में आता है कि जीव को अपने वर्तमान प्रयासों से इच्छा के अनुकूल सामग्री प्राप्त नहीं होती। इसीप्रकार प्रतिकूल परिस्थितयाँ हमारे प्रयास के करने से दूर नहीं होतीं, वरन पूर्व में किये गये भावों के फलस्वरूप जो पुण्यकर्म बांध लिया था उसका उदय आने से, उसका प्रयास सफल होता हुआ दीखने लगता है तो उसको यह जीव भ्रम से अपने प्रयासों का फल मानकर सफल होने पर अभिमान करके प्रयासों में और भी उग्रता लाकर तीव्र आकुलित होता है । पश्चात् वह अपने प्रयासों को और भी तीव्रता के साथ करने लगता है, लेकिन मिलता उतना ही है जितना पुण्य का उदय होता है । इसीप्रकार पूर्व में किये गये खराब भावों से बांधे गये पापकर्म, उनके उदय के कारण प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते रहते हैं लेकिन उनको भी अपने प्रयासों के करने के तरीकों की भूल मानकर निरन्तर तीव्र आकुलित होकर नये-नये तरीके जुटाता है और दुःखी होता रहता है। लेकिन इतना होकर भी उन संयोगों में कुछ भी परिवर्तन नहीं हो पाता । अतः इसके प्रयासों से संयोग तो बदलते नहीं और आकुलता उल्टी बढ़ती ही रहती है । फल यह होता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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