Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 99
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ९७ इसप्रकार उपरोक्त कथन से निश्चित होता है कि कार्य की सम्पन्नता में उपरोक्त पाँचों समवायों की एकसाथ स्वतः समग्रता होती ही है । लेकिन इन पाँचों में से जीव तो बुद्धिपूर्वक एकमात्र पुरुषार्थ ही करसकता है, बाकी के चारों समवायों के संबंध में यह जीव कुछ भी नहीं कर सकता । वे तो अपने आप ही स्वयं कार्य की सम्पन्नता के समय मिलेंगे ही मिलेंगे । अतः पाँच समवायों के सिद्धान्त समझने वाले का निःशंकतया एकमात्र पुरुषार्थ ही कर्तव्य रह जाता है, नियतवाद को कोई अवकाश नहीं रह सकता । कर्मोदय में आत्मा का पुरुषार्थ अकार्यकारी कहने वाले कथनों का अभिप्राय जिनवाणी में ऐसा कथन आता है कि जैसा - जैसा कर्म का उदय आता है, वैसे-वैसे आत्मा के भाव होते हैं। ऐसे कथनों के द्वारा ऐसी शंका खड़ी हो जाना स्वाभाविक है कि कर्म का उदय जब अनुकूल होगा, तभी आत्मा पुरुषार्थ कर पावेगा, अतः पुरुषार्थ करने का उपदेश निरर्थक दीखने लगता है ? लेकिन इस कथन का तात्पर्य ऐसा है नहीं, यह कथन तो पाँच समवायों में एक निमित्त समवाय भी है उसकी मुख्यता से किया गया है । निमित्त में कर्म हो, अथवा अन्य कोई नोकर्म आदि हो, सभी गर्भित हैं । इसका तात्पर्य ऐसा नहीं है कि कार्य की सम्पन्नता के समय अकेला एक निमित्त ही समवाय था और चारों समवायों का अभाव ही था । यह कथन एक निमित्त समवाय को मुख्य करके अन्य समवायों को गौणरूप रखते हुए किया गया है, क्योंकि कथन तो पाँच समवायों में से किसी एक समवाय की मुख्यता से ही हो सकता है, अन्य कोई उपाय है ही नहीं । इसप्रकार के कथन को समझने के समय अपनी मान्यता स्पष्ट होनी चाहिए कि कार्य की सम्पन्नता तो पाँचों की समग्रता में ही हुई है, मात्र कथन एक ही मुख्यता से किया गया है 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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