Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 97
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [ ९५ उपरोक्त पाँचों समवायों का स्व और पर के रूप में वर्गीकरण करें तो चार तो स्व कहे जावेंगे यथा स्वभाव, काललब्धि, होनहार एवं पुरुषार्थ ये चारों तो जीव में ही होंगे लेकिन एक निमित्त ही पर रूप समवाय रहेगा। इसी वर्गीकरण को जिनवाणी में स्व को अंतरंग आभ्यंतर कारण कहा है और पर को बहिरंग बाह्य कारण कहा है। इसप्रकार जिनवाणी में अनेक नामों से, अनेक अपेक्षाओं से, अनेक जगह, अनेक-अनेक प्रकार के कथन आते हैं, लेकिन सबका तात्पर्य, वस्तुस्वातंत्र्य के सिद्धान्त के माध्यम से समझकर, आत्मा में वीतरागता प्रगट करना है । आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभू स्तोत्र की वासुपूज्य भगवान की स्तुति के श्लोक में भी कहा है कि बाह्योतरोपाधिसमग्रतेंय कार्येषु द्रव्यगतः स्वभावः । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंस तेनामिबन्धस्तमृषिर्बुधानाम् ॥ ५ ॥ अर्थ :- कार्यों में यह बाह्य और आभ्यतंर दोनों कारणों की समग्रता, हे भगवन् आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है । अन्यथा पुरुष को मोक्ष की विधि भी नहीं बनती। इसलिए ऋद्धियों से युक्त आप बुधजनों से वन्दनीय है । : उपरोक्त श्लोक द्वारा भी यही सिद्ध किया है कि स्व और पर दोनों कारणों की समग्रता में ही, कार्य की उत्पत्ति होती है । पाँच प्रकार की स्थितियाँ सहजरूप से बनती ही बनती है; बनानी नहीं पड़ती, मिलाना नहीं पड़ती। वस्तु की स्थिति ही ऐसी है कि पाँचों स्थितियों का समवायीकरण निश्चितरूप से होता ही होता है। उन पाँच समवायों में एक पुरुषार्थ नाम का समवाय भी है अतः प्रश्न ही समाप्त हो जाता है कि कार्य की सम्पन्नता में पुरुषार्थ का कोई स्थान नहीं रहता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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