Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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[१०७
वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] पर्याय का अस्तित्व तो मात्र एक समयवर्ती होने से ये पर्यायगत भाव भी क्षणिक एक समयवर्ती होने से इनका कर्ता वास्तव में आत्मा नहीं होने पर भी, वे आत्मा की ही पर्यायें होने के कारण इनका कर्ता आत्मा को कहना व्यवहार मात्र ही है। आत्मा तो वास्तव में अपने त्रिकाली भाव का ही कर्ता है और इस अपेक्षा पर्यायगत भावों का भी अकर्ता ही है।
___ रागादि उत्पन्न कैसे होते हैं प्रश्न महत्वपूर्ण इसलिये है कि जब आत्मा ज्ञायक स्वभावी है तो उसमें रागादि उत्पन्न कैसे हो जाते हैं?
समाधान :- संक्षेप में समाधान तो यह है कि वास्तव में ज्ञायक स्वभावी आत्मा, अगर अपने स्वभाविक परिणमन करता रहे तो, रागादि उत्पन्न होने का अवकाश ही नहीं रहता। जिसका प्रमाण अरहंत भगवान एवं सिद्ध भगवान की आत्मा है। उनकी आत्मा स्वाभाविक परिणमन कर रही है तो उनकी आत्मा में रागादि उत्पन्न नहीं होते। इसलिये निष्कर्ष यह है कि आत्मा में रागदि की उत्पत्ति का मूल कारण आत्मा के ज्ञान का अस्वाभाविक परिणमन ही है। वह निम्न प्रकार :
वास्तव में आत्मा तो ज्ञानस्वभावी है और ज्ञान का स्वभाव स्व-पर प्रकाशक अर्थात् स्व एवं पर को जानने का है। जगत का हर एक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में परिणमन करता ही रहता है। अत: आत्मा भी जानने रूप कार्य को अनवरत रूप से निरंतर करता ही रहता है।
लेकिन जब यह आत्मा पर को जानने की रुचि होने से अपने आपको नहीं जानते हुए मात्र पर को जानता रहता है तब अकेला पर ही उसके ज्ञान में ज्ञात होता है। यह ज्ञान की स्वभावभूत क्रिया नहीं है। लेकिन श्रद्धा गुण का कार्य है कि जिस को भी ज्ञान गुण स्व जानते हुए उपस्थित करता है, उस ही में आत्मा अपनेपन की श्रद्धा कर लेता है। तब रुचि और ज्ञान का विषय मात्र पर ही रह जाने से आत्मा के सभी गुण उस ओर कार्यशील हो जाते हैं । फलत: उस ओर आत्मा कुछ करने अथवा
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