Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 114
________________ ११२ ] | सुखी होने का उपाय तब तक यह संसारी जीव पुरुषार्थ ही कैसे व किसलिये करेगा । दूसरी अपेक्षा यह भी है कि बिना कोई लक्ष्य उद्देश्य अथवा ध्येय बनाये, कभी भी किसी को भी किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती । जैसे फुटबाल अथवा हॉकी आदि खेलों के लिये पूरी की पूरी टीम का ध्येय होता है कि अपने-अपने गोल को बचाना तथा दूसरे पक्ष का लक्ष्य एवं उद्देश्य होता है कि विपक्ष के गोल को परास्त करना। नदी में तैरनेवाले के सामने ध्येय एवं उद्देश्य होता है कि नदी को पार करके किनारे को पकड़ना । उसीप्रकार संसारी जीव का भी एक उद्देश्य होता है, ध्येय होता है कि वर्तमान संसार दशा का अभाव करके पूर्णदशा अर्थात् सिद्ध दशा प्राप्त करना । उपरोक्त सभी कारणों से सिद्ध होता है कि इस संसारी आत्मा को वर्तमान में अपनी रागी-द्वेषी आदि विकारी अवस्थावाला मानते हुए भी, अपने को शक्ति व सामर्थ्य की अपेक्षा एवं ध्येय तो सिद्ध से जरा भी कमी वाला नहीं मानना चाहिए। अपनी वर्तमान दशा का अभाव करने के लिए, अपनी सामर्थ्य का विश्वास जाग्रत करते हुए ध्येय एवं उद्देश्य तो, सिद्ध भगवान से जरा भी नीचा नहीं रखना चाहिए। तभी यह जीव स्वयं सिद्ध बन सकेगा । अगर अपने को वर्तमान में विकारी नहीं मानेगा तो मोक्षमार्ग का प्रारंभ ही नहीं होगा और अगर वर्तमान में ही यह विश्वास जाग्रत नहीं हुआ कि मेरी आत्मा ही स्वयं सिद्ध जैसे स्वभाव वाली है, अत: सिद्ध दशा को भी मैं स्वयं ही अवश्य प्राप्त कर लूंगा। ऐसा उद्देश्य और ध्येय बनाने पर ही पुरुषार्थ प्रारंभ हो सकेगा । अत: वर्तमान में ही अपने आत्मा को सामर्थ्य एवं ध्येय की अपेक्षा से तो सिद्ध जैसा ही मानना योग्य है और पर्याय में वर्तमान में तो आत्मा को विकारी स्वीकार करते हुए स्वभाव के आश्रय से अर्थात् उस ही के आश्रय से उसके समान बनने का पुरुषार्थ अवश्य करना चाहिए । यही द्वादशांग का सार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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