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[ सुखी होने का उपाय काललब्धि के अभाव में पुरुषार्थ अकार्यकारी
कथन का अभिप्राय इसीप्रकार जिनवाणी में, काललब्धि की मुख्यता से कथन आते हैं, तथा भवितव्यता योग्यता नियति, होनहार, क्रमबद्ध आदि की मुख्यता से भी कथन आते हैं, उन कथनों का भी उपरोक्त सिद्धान्त को दृष्टिगत रखकर ही समझना चाहिए। आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने स्वयभूस्तोत्र की सुपार्श्वनाथ भगवान की स्तुति के श्लोक ३ में भवितव्यता की मुख्यता से कहा भी है कि :
अलंध्य शक्ति भवितव्यतेतं हेतुद्वया विष्कृत-कार्य-लिंगा। अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियातः संहत्य कार्याविति साध्ववादी ॥३॥
अर्थ :- हेतुद्वय के द्वारा उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका लिंग है ऐसी यह भवितव्यता अलंघ्य शक्ति है। अहंकार से पीड़ित प्राणी सुखादिक कार्यों के सम्पन्न करने में समर्थ नहीं है। यह आपने ठीक ही कहा है अर्थात् जैसी वस्तुस्थिति है वैसा कहा है ॥ ३ ॥
काललब्धि की मुख्यतापूर्वक किये गये कथनों का अभिप्राय तो “कर्तृत्वपने” की मान्यता के निषेध करने का होता है।
जीव को अनादिकाल से कर्तृत्वबुद्धि का अभिप्राय तो अंतर में बैठा हुआ ही है। और जिनवाणी के पुरुषार्थ की मुख्यता से किये गये कथनों को पढ़कर, विपरीत मान्यता वाला जीव, उन के द्वारा भी अपनी कर्तृत्व बुद्धि की मान्यता के पोषक कथनों द्वारा और भी दृढ़ कर लेता है, लेकिन उन कथनों का अभिप्राय तो उस अनादिकालीन मिथ्या मान्यता का अभाव कराके, जीव को यथार्थ मार्ग पर लगाने का होता है। ___ जैसे कलश टीकाकार पांडेराजमलजी ने कलश ४ की व्याख्या के अंत में लिखा है कि :
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