Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 105
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । [ १०३ टोडरमलजी उक्त ग्रंथ के पृष्ठ २६० पर कहते हैं कि :___“देखो तत्त्व विचार की महिमा। तत्त्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, वृतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं, और तत्व विचार वाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।" __ इसप्रकार उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस जीव को मोक्षमार्ग प्राप्त करने के लिये एकमात्र तत्त्व निर्णय रूप अभ्यास ही कार्यकारी है, अत: जिज्ञासु पात्र जीव को अन्य विकल्पों को छोड़कर एकमात्र तत्वनिर्णय करने का ही अभ्यास करना चाहिए। इस ही से मोक्षमार्ग की प्राप्ति संभव है। तत्त्व निर्णय करना अथवा आत्मा के ज्ञायक अकर्ता स्वभाव का निर्णय करना ? तत्त्व निर्णय का अभिप्राय “ज्ञायक-अकर्ता स्वभावी आत्मा है", यह समझना ही है। नव तत्त्वों में अथवा सात तत्त्वों में, स्वयं जीव भी तो एक तत्त्व है। अत: उसका स्वरूप एवं स्वभाव समझना भी तो तत्त्व निर्णय में ही सम्मिलित है। एक जीवतत्त्व ही तो सभी तत्त्वों में सारभूत और प्रयोजनभूत तत्त्व है; अत: एक अकेले मेरे जीवतत्त्व का स्वरूप समझने के लिये ही तो मुझे इन सभी तत्त्वों का स्वरूप समझना कार्यकारी होगा। मात्र सभी तत्त्वों के स्वरूप को समझ लेने मात्र से मेरे को क्या लाभ होने वाला है। क्योंकि ये नवों तत्त्व एक मेरे आत्मा से ही संबंधित हैं। इसलिये ही जिनवाणी में इन तत्त्वों को आत्मा की मुख्यता से 'हेय-ज्ञेय-उपादेय' इसप्रकार तीन समूहों में बाँटा है। जैसे जीव और अजीव तो दोनों ज्ञेय तत्व हैं, वे आत्मा के ज्ञान में तो अवश्य आवेंगे। लेकिन वे मात्र जान लेने योग्य तत्त्व हैं। आस्रव और बंध तो हेय तत्त्व हैं, पुण्य और पाप भी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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