Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 101
________________ [ ९९ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । __ “यद्यपि सम्यकत्व रूप जीवद्रव्य परिणमता है तथापि काललब्धि के बिना करोड़ उपाय जो किये जाय तो भी जीव को सम्यक्त्व वस्तु , यत्नसाध्य नहीं, (अथवा कर्तृत्व रूप यत्नसाध्य नहीं) सहज रूप है ॥ ४ ॥ उपरोक्त कथन काललब्धि पोषक दिखते हुए भी यथार्थ पुरुषार्थ ( अकर्तृत्वरूपी यर्थाथ पुरुषार्थ ) का पोषक है। इसीप्रकार अन्य कथनों का भी अभिप्राय समझना चाहिए। क्योंकि जिनवाणी का कोई भी कथन, किसी भी मुख्यता से किया गया हो, सबका उद्देश्य एकमात्र वीतरागता ही प्राप्त करने का अर्थात पोषण करने का होता है। आचार्य अमृतचंद्रदेव ने पंचास्तिकाय संग्रह की गाथा १७२ की टीका में कहा है कि :"अलं विस्तरेण। स्वस्ति साक्षान्मोक्षमार्गसारत्वेन शास्त्र तात्पर्यभूताय वीतरागत्वायेति ।" अर्थ :- विस्तार से वस हो। जयवंत वर्ते वीतरागता जो कि साक्षात् मोक्षमार्ग का सार होने से शास्त्र तात्पर्यभूत है। जिनवाणी के स्वभाव एवं भवितव्यता की मुख्यता से किये गये कथनों का अभिप्राय उपरोक्त प्रकार से जिनवाणी में पाँचों समवायों में “स्वभाव" नामक समवाय की मुख्यता से भी कथन आते हैं। उसका भी अभिप्राय मात्र यही दिखाने का है कि चेतन द्रव्य में ही चेतन का कार्य होगा, अचेतन में नहीं होगा। जैसे आत्मा में विकार होने की स्थिति में वह विकार जीव में ही हो सकेगा। क्योंकि वे सब अचेतन पदार्थ हैं; उनमें वैसा होने का सामर्थ्य ही नहीं है। ऐसा नहीं मानने से तो वेदांत आदि की मान्यता के अनुसार एकान्त मिथ्यादृष्टि हो जाता है। एक समवाय भवितव्यता के नाम से भी है। इस ही को नियति के नाम से क्रमबद्ध, होनहार आदि अनेक नामों से कहा जाता है। उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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