Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 38
________________ ३६] [ सुखी होने का उपाय इन सब दृष्टान्तों से यह सिद्ध होता है कि हर एक पदार्थ यानी द्रव्य अपने सत्ता को कायम रखता हुआ भी, हर समय अवस्था बदलता ही रहता है। इसी को शास्त्रीय भाषा में, सत्ता को ध्रुव एवं बदलने का उत्पाद-व्यय के नाम से समझाया गया है। जैसे एक द्रव्य अपनी अनादि सत्ता को ध्रुवरूप से टिकाये हुए रखकर, अवस्थाओं को हर समय पलटता ही रहता है अर्थात् पूर्व अवस्था का व्यय करते हुए नवीन अवस्था का उत्पाद करता ही रहता है। जिस अवस्था का उत्पाद करता रहता है उस को ही पर्याय के नाम से शास्त्रों में संबोधित किया गया है। गुणपर्ययवद्रव्यं समस्त द्रव्यों की ध्रुवता और परिणमन को स्पष्ट करते हुए आचार्य महाराज ने फिर सूत्र दिया है : “गुणपर्ययवद्र्व्यं” अर्थात् उन सब द्रव्यों की ध्रुवता एवं परिणमन अपने-अपने गुणों में अर्थात् स्वभावों में ही होता है। कोई भी द्रव्य अपने-अपने गुणों के अतिरिक्त, अन्य द्रव्य के गुणों में किसी भी प्रकार से परिणमन नहीं कर सकता। जैसे शरीर के किसी भाग में दर्द उत्पन्न होने पर आत्मा बहुत तीव्रता से इच्छा करता है कि वह दर्द मिट जावे। लेकिन शरीर के परमाणु अपने गुणों में ही परिणमन करते हैं, आत्मा अन्य द्रव्य होने से वह अपने गुणों में ही इच्छारूप परिणमन करता है। लेकिन आत्मा भिन्न द्रव्य होने से और शरीर भिन्न द्रव्य होने से उसके परमाणुओं में कुछ भी फेरफार नहीं कर सकता । कारण यही है कि हर एक द्रव्य अपने-अपने गुणों को ध्रुवरूप से कायम रखते हुए अपने-अपने गुणों में ही परिणमन कर सकते हैं, लेकिन अन्य के परिणमन में हस्तक्षेप करने की उसमें सामर्थ्य ही नहीं है। निष्कर्ष उपर्युक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जगत में जितने भी पदार्थ यानी द्रव्य हैं, वे सत्तारूप द्रव्य अनादि अनन्त रहने वाले हैं। वे सब अपने गुण अर्थात् स्वभाव अर्थात् अपनी-अपनी क्वालिटियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116