Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 80
________________ | सुखी होने का उपाय ७८ ] सम्मत व्यवस्था है । अगर उपरोक्त व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया जावे तो छह द्रव्य ही सिद्ध नहीं होंगे और विश्व का अस्तित्व ही समाप्त हो जावेगा। जो कि प्रत्यक्ष में भी बाधित है एवं आगम के भी विपरीत है । अतः उपरोक्त सत्य को स्वीकार करना ही ज्ञान की सत्यता है | हमारे अनुभव भी आता है कि जब भी किसी अन्य व्यक्ति को मेरे प्रति द्वेष का भाव हुआ उस समय उस जीव ने तो क्रोधभाव का उत्पाद किया, उसी समय उस ही व्यक्ति की भाषा रूपी पुद्गल वर्गणाऍ गाली के रूप में उत्पाद हुई, उसी समय उस भाषारूपी वर्गणाओं का मेरी कर्ण इन्द्रिय के साथ सम्पर्क हुआ, उसी समय मेरी ज्ञान की उस समय की पर्याय ने उन सबको जाना और उसी समय मेरी मान्यता में अर्थात् श्रद्धागुण ने उन वाणी रूपी पुद्गलों में मान्यता की कि ये गाली मुझे दी गई ऐसा मान लिया, फलस्वरूप चारित्र गुण ही विकृत होकर क्रोध कषाय का उत्पाद हो गया । उपरोक्त सभी कार्य, एक ही साथ हुए हैं; इन सभी कार्यों का समय एक ही है । इस प्रसंग में गंभीरता से विचार करने पर स्पष्ट होगा कि कार्य तो मात्र एक ही हुआ। जैसे क्रोध करने वाले व्यक्ति ने क्रोध का उत्पाद किया वह तो उस जीव की पर्याय है । उसी समय वाणीरूपी पुद्गल वर्गणाओं का गालीरूप उत्पाद है; उसी समय मेरे कर्ण से संबंधित पुद्गलों का वाणी रूपी परमाणुओं से संपर्क होने का उत्पाद हुआ । उसी समय मेरे ज्ञानगुण का तदाकार होना मेरा उत्पाद है । उसी समय मेरे श्रद्धागुण का विपरीत परिणमन भी मेरा उत्पाद है तथा चारित्र की विपरीतता रूप क्रोध का उत्पाद भी मेरा ही उत्पाद हुआ । इस पर विचार करिये कि समय एक और कार्य अनेक तथा उनके स्वामी भी अलग-अलग व अनेक, फिर भी आपस में किसी न किसी प्रकार से संबंध भी बनता है, यह प्रत्यक्ष अनुभव में आता ही है, अत: इस सत्य का अस्वीकार करना विश्व व्यवस्था को अस्वीकार करना है। ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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