Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 83
________________ [८१ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] शब्द निकले । गाली के शब्द निकले तो हमारे कानों में पड़े, उनसे आत्मा को गाली के शब्दों का ज्ञान हुआ, उससे क्रोध उत्पन्न हुआ, आदि-आदि। अगर गाली देनेवाला व्यक्ति क्रोध नहीं करता तो यह सब क्यों होता ? इसप्रकार अनेक प्रसंगों में ऐसा ही दिखता है। उपरोक्त शंका का निराकरण वीतरागता उत्पादक सिद्धान्त को मुख्य रखकर, गंभीर चिन्तन-मनन से ही हृदय में उतर सकता है। यह तो पहले अनेक बार कहा गया है। ऊपर कही गई वस्तु व्यवस्था एवं विश्व व्यवस्था को सत्समागम तर्क, आगम, अनुमान, एवं अनुभव के साथ-साथ तीव्रतम रुचि के द्वारा, पक्का निर्णय कर, श्रद्धा में बैठाकर, हर एक द्रव्य की स्वतंत्रता का विश्वास नहीं जमे, तब तक उपरोक्त शंका का समाधान होना कठिन है। क्योंकि विश्व में हर समय हर एक द्रव्य परिणमन तो कर ही रहा है, वही उसका कार्य अर्थात् धर्म है और वह द्रव्य उस कार्य का कर्ता है। इसमें कभी व्यवधान तो पड़ नहीं सकता। ऐसी ही विश्व की व्यवस्था है। उस एक ही समय में अनन्त द्रव्यों के परिणमन, किसी अन्य द्रव्य के किसी परिणमन के अनुकूल भी पड़ सकते हैं, किसी के प्रतिकूल भी पड़ सकते हैं, जब कि उस द्रव्य ने तो कोई कार्य इसलिए किया ही नहीं है कि वह किसी को अनुकूलता का कारण हो अथवा प्रतिकूलता का कारण हो, लेकिन कार्य अर्थात् पर्याय तो सभी द्रव्य अपना-अपना करेंगे ही करेंगे। ऐसी स्थिति में यह कैसे संभव है कि अनंतानंत द्रव्यों में वह कार्य किसी के अनुकूल अथवा प्रतिकूल न पड़े ? अत: यही विश्व की व्यवस्था है कि कोई द्रव्य किसी भी द्रव्य के कार्य में बाधा नहीं डालता हुआ भी अपना कार्य करता ही रहता है, चाहे वह कार्य किसी को अनुकूल लगे अथवा नहीं। इस बात को आचार्य पूज्यपादस्वामी ने इष्टोपदेश ग्रन्थ की, गाथा ३५ में निम्नप्रकार से स्पष्ट किया है : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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