Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 78
________________ ७६] [ सुखी होने का उपाय रूप स्वभाव है उस रूप तो अरिहंत भगवान परिणमते ही रहते हैं, जिस रूप में वे नहीं परिणमते वह आत्मा का स्वभाव ही नहीं हैं। इसीलिए अन्य प्रकार से नहीं परिणमते, उनमें तो अनन्त शक्ति प्रगट हो चुकी है, अत: अन्य द्रव्य में फेरफार करने की सामर्थ्य अगर किसी द्रव्य में स्वीकार की जावे तो अरिहंत भगवान को जो अनंत शक्तिवान हैं, उन्हें तो सब कुछ फेरफार कर देना चाहिए था। अगर यह स्वीकार किया जावे तो हमको भी ईश्वर का कर्तृत्ववाद ही स्वीकार करना पड़ जावेगा, जो कि जैन धर्म की मान्यता के अत्यन्त विपरीत है। अत: सब प्रकार से निष्कर्ष यही निकलता है कि जैसी ऊपर कही गई है, वही वस्तु व्यवस्था एवं विश्व व्यवस्था है, उसको नि:शंक होकर, स्वीकार कर दृढ़ निश्चय के साथ श्रद्धा में बैठाना चाहिए। निमित्त-नैमित्तिक संबंध प्रश्न होता है कि निमित्त-नैमित्तिक संबंध क्या है? उत्तर :- विश्व में मात्र एक ही द्रव्य तो नहीं है, द्रव्य तो जाति अपेक्षा छह तरह के तथा संख्या अपेक्षा अनंत-अनंत हैं, वे सबके सब ही अपनी-अपनी पर्यायों रूप ही परिणमते हैं। हमारे ज्ञान में भी स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि जीव ही अकेला तो द्रव्य नहीं है। उसके ज्ञान में अन्य द्रव्यों का अस्तित्व भी तो ज्ञात होता है। अत: जब जीव के अतिरिक्त भी अन्य द्रव्यों का अस्तित्व है तो जीव के परिणमन के समय, अन्य दूसरे द्रव्यों के भी परिणमन होंगे ही, अत: उन सबके साथ सबका कुछ न कुछ किसी भी प्रकार संबंध तो होना ही चाहिए । जीव के ज्ञान में अन्य ज्ञेयों का अस्तित्व भी तो ज्ञात होता है, अत: आत्मा जाननेवाला और वे पदार्थ ज्ञान के ज्ञेय-इतना संबंध तो सिद्ध होता ही है। अत: वे ज्ञेय, ज्ञान के निमित्त कहे जाते हैं। ऐसा संबंध नैमित्तिक संबंध हैं। इस ही बात को आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार गाथा-३ की टीका में निम्नप्रकार से स्पष्ट किया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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