Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 65
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] [६३ आवाल-वृद्ध सबके अनुभव में सदा ही, स्वयं ही आने पर भी आदि-आदि। अत: ज्ञानी, अज्ञानी, अल्पज्ञानी, विशेषज्ञानी, सबका ज्ञान, सामान्यतया स्व-पर को जानता हुआ ही उत्पन्न होता है। अन्तर इतना ही है कि अज्ञानी ज्ञेयलुब्ध प्राणी स्व को भूलकर परज्ञेय जो ज्ञान में आते हैं उनको ही मुख्य करके, उनको ही जानने वाला अपने का मानता चला आ रहा है, तथा उनही को मुख्य करके उनमें अपनी कल्पना से, इष्टपना-अनिष्टपना मानकर इष्ट को रखने के लिए तथा जिसको अनिष्ट मानता है उसको दूर करने के लिए निरन्तर अपने आपको चेष्टित कर, उनके प्रति रागद्वेष करके अपने उपयोग में तीव्र दौड़ लगा-लगाकर स्वयं दुःखी होता रहता है, क्योंकि वे ज्ञेय तो इसके आधीन हैं नहीं जो इसकी इच्छा के अनुसार रहें या दूर हों। अत: आकुलतारूपी दुःख का वेदन ही निरन्तर करता रहता है। इसके विपरीत ज्ञानी पुरुष को स्व का अस्तित्व ही मुख्य बना रहने के कारण अज्ञानी के समान आकुलता नहीं होती। क्योंकि परद्रव्यों के परिणमन स्वतंत्र ही निरन्तर अपने-अपने कारण से होते ही रहते हैं, न तो उनका परिणमन किसी पर की अपेक्षा लेकर हो रहा है और न हो ही सकता है। उनके साथ मेरा तो मात्र परज्ञेय के रूप में उपेक्षितरूप से जान लेने के अतिरिक्त कोई प्रकार का संबंध ही नहीं है। ऐसी दृढ़ श्रद्धा, विश्वास, मान्यता जो भी कहो- निरन्तर वर्तन के कारण, उन ज्ञेयों के प्रति इष्ट-अनिष्ट मान्यता रूपी झूठी कल्पना ही उत्पन्न नहीं होती। फलस्वरूप तत्संबंधी अज्ञानी के जैसी आकुलता भी नहीं वर्तती। अत: वह अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार निराकुलतारूपी सुख को निरन्तर वेदन करता रहता है। अत: संसार दशा में भी सुखी रहता है। इसी विषय का समयसार ग्रंथ की गाथा १७-१८ की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र देव ने निम्नप्रकार से समर्थन किया है :___परन्तु जब ऐसा अनुभूति स्वरूप भगवान आत्मा आवाल वृद्ध सबके अनुभव में सदा स्वयं ही आने पर भी अनादि बंध के वश परद्रव्यों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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