Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1
Author(s): Nemichand Patni
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । [ ५५ भी तथा उन कषायभावों में एकमेकसा हुआ दीखता हुआ भी, भिन्न रहता हुआ जानने का कार्य करता रहता है । क्योंकि कुछ काल बाद जब वह कषाय तो शांत हो जाती है, लेकिन कषाय के काल की समस्त घटना सहित क्रोधादि के मंद - तीव्र भावों की समस्त स्थिति का चित्र ज्ञान में वर्तमानवत् उपस्थित हो जाता है, किन्तु उसके साथ-साथ वह कषाय उत्पन्न नहीं होती । इससे सिद्ध होता है कि कषाय उत्पन्न होने के काल में भी ज्ञान और कषाय एकमेक हो गये जैसा दीखने पर भी परमार्थत: कषाय से भिन्न रहकर ही, ज्ञान जानने का कार्य कर रहा था । इन सब बातों से आत्मा के असाधारण गुण, स्वभाव, धर्म जो भी कहो, ऐसे एक ज्ञानगुण की अगाध महिमा है। आगम में उस ज्ञान की एवं उस ज्ञान के धारक भगवान आत्मा की तो अपरंपार महिमा गाई है, क्योंकि आत्मा में तो अनन्त गुण हैं, उनमें एक ज्ञानगुण की ही जब इतनी महिमा है, तो अनन्त धर्मों की महिमा एवं उन सबका धारक ऐसा जो आत्मा उसकी कितनी महिमा होनी चाहिए - यह तो हम अनुमान से भी निर्णय कर सकते हैं । अतः आत्मा का तो मात्र जानने वाला बने रहना ही आत्मा का धर्म है । हमारी यह चर्चा " वत्थु सहावो धम्मो” के अंतर्गत आत्मा एक वस्तु है, उसके धर्म को समझने के लिए चल रही है । मैं स्वयं एक आत्मवस्तु हूँ, अतः मुझे मेरे लिए ही धर्म करना है अतः मेरे लिए यह समझना ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि मेरी आत्मा कितना महत्वपूर्ण पदार्थ है । उपरोक्त ऊहापोह के माध्यम से, आगम के आधार से, तर्क से, एवं अनुभव से भी यह निर्णय में आता है कि ज्ञान ही आत्मा का असाधारण स्वभाव है। इस पर प्रश्न खड़ा होता है कि, इसके समझने मात्र से धर्म कैसे हो गया ? धर्म से तो शांति अर्थात् निराकुलतारूपी सुख की उत्पत्ति होनी www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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