Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 62
________________ ६० ] [ सुखी होने का उपाय गुण की पर्याय स्वचतुष्टय में रहकर स्वचतुष्टय में ही तो कार्य करेगी। ज्ञेय जो कि पर हैं वे अपने-अपने स्वचतुष्टय में हैं, उनका भी इस पर्याय को स्वचतुष्टय में रहते हुए ही ज्ञान होता है। ज्ञान पर्याय स्व पर प्रकाशक कही जाती है, वह कैसे ? जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञान की पर्याय का स्वभाव ही ऐसा अद्भुत है कि वह जब-जब जानने का कार्य करती है, एक साथ ही स्व और पर दोनों का जानती हुई ही प्रगट होती है, न अकेले स्व को और न अकेले पर को ही जानती है । अत: यह पर्याय की स्व सामर्थ्य है कि उसको एक ही समय स्व और पर दोनों का एक ही साथ ज्ञान होता है । जैसे दर्पण में प्रकाशित होनेवाले अन्य पदार्थों का दिखना सहज स्वाभाविक ही होता है । वे दिखने में आये बिना नहीं रहते, क्योंकि दर्पण का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अकेला अपने आपको दिखा ही नहीं सकता। देखनेवाला दर्पण को ही देखना चाहे तो भी पर का भी दर्शन तो वहाँ विद्यमान रहता ही है, अतः दर्पण को देखने वाले को दर्पण के साथ-साथ पर ज्ञेयों का भी दर्शन हुए बिना रह ही नहीं सकता । यह तो देखने वाले की इच्छा है कि वह दर्पण को मुख्य बनाकर दर्पण को देखे अथवा उसमें दिखने वाले अन्य पदार्थों को मुख्य करके उन पदार्थों को देखे; लेकिन दर्पण में तो दोनों का एक साथ ही प्रकाशितपना है । इसीप्रकार आत्मा के ज्ञानगुण की हर एक पर्याय में दर्पण के समान एक साथ ही स्व और पर, दोनों ज्ञेय रूप से विद्यमान हैं। लेकिन जब यह आत्मा अपने ज्ञान के द्वारा अपने आपको जानता है तब, उसमें तो स्व और पर एक साथ विद्यमान होने पर भी यह आत्मा अपनी रुचि के अनुसार जिसको मुख्य करता है वह ही उसको जानने में आते हुए दिखने लगते हैं और अन्य का अस्तित्व ही नहीं वत् हो जाता है, दर्पण के समान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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