Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 32
________________ ३० ] [ सुखी होने का उपाय अत: इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए कि “धर्म कहाँ होता है यह खोज भी आवश्यक हो जाती है कि अधर्मभाव अर्थात् आकुलता कहाँ होती है। अधर्मभाव कहाँ होता है ? ___ यह तो हमको प्रत्यक्ष अनुभव है कि आकुलताभाव मेरी आत्मा में ही होता है। मेरे सबसे नजदीक रहने वाले शरीर में मेरी आकुलता नहीं होती, मेरे अत्यन्त निकटवर्ती जिनको अभिन्न अंग अथवा अर्धांगिनी भी कहा जाता है ऐसी स्त्री आदि अन्य कोई भी व्यक्ति हों, उनको भी मेरी आकुलता नहीं होती। मेरी आकुलता तो मात्र एक मेरी आत्मा के ही वेदन में आती है। उस आकुलता की उत्पत्ति में बाह्य कारण अनेक हो सकते हैं, लेकिन आकुलता का वेदन तो आत्मा को ही, अपनी स्वयं की अवस्था में होता है साथ में यह भी विश्वास होता है कि यह आकुलता हमेशा बनी भी नहीं रहती, नष्ट भी हो जाती है। अत: जहाँ वर्तमान में आकुलता हो रही है, उस ही के स्थान पर अर्थात् आत्मा की अवस्था में ही, उस आकुलता को टालकर, निराकुलता अर्थात् धर्मभाव प्रगट किया जा सकता है। अत: उपरोक्त ऊहापोह के द्वारा हम सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँच जाते हैं कि आत्मा का धर्म, आत्मा में ही अर्थात् आत्मा की स्वयं की पर्याय अवस्था में ही होता है। इस विषय को और भी स्पष्ट करने के लिए हम दृष्टान्त से समझें कि जैसे किसी व्यक्ति ने किसी को जान से मार देने की योजना अपने भावों में बनाई और वह अपनी योजनानुसार कार्य करने के लिए उद्यमी भी हुआ, लेकिन बाहर का वातावरण अनुकूल नहीं मिलने से वह उसको मार नहीं सका। तो विचार करना चाहिए कि उस व्यक्ति के द्वारा उस व्यक्ति का घात तो हुआ नहीं, फिर भी उसने हिंसारूप अधर्मभाव किया या नहीं ? और किया है तो वह भाव कहाँ हुआ था ? इसीप्रकार एक डाक्टर किसी मरीज का ऑपरेशन कर रहा हो और कदाचित् ऑपरेशन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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