Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 25
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था । [ २३ में जो भी बाधक बनें उन सबको अपने पूर्ण प्रयत्न के द्वारः दूर करना पड़ेगा। आदि-आदि विश्वास के कारण उन संयोगों को इकट्ठा करने की एवं बाधक संयोगों को दूर करने की चिंता में दिन-रात लगा रहता है और आकुलित हो-होकर निरन्तर दुःखी बना रहता है। पाँचों पाप और कषायों की उत्पत्ति का कारण उपरोक्त मिथ्या विश्वास, श्रद्धा होने के कारण ही उपरोक्त प्रयासों में लगे रहने पर, जिसको जितनी लालसा तीव्र होती है, प्राप्त करने की उग्रता उतनी ही ज्यादा होगी। वह व्यक्ति किसी भी प्रकार के संयोग की पूर्ति करने के लिए, हिंसा करने में, झूठ बोलने में, चोरी करने में, कामवासना की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के अनर्थ करने मे एवं संयोगों को इकट्ठा करने एवं बनाये रखने की चिन्ता अर्थात् आकुलता कितनी भी तीव्र हो, करने में जरा भी नहीं हिचकिचायेगा। उस निरन्तर होने वाली आकुलता का दुःख रूप भी अनुभव नहीं करता है, बल्कि तीव्र आकुलता करना अपना कर्त्तव्य मानकर उसमें अत्यन्त गृद्धता के साथ चौबीस घण्टे घानी के बैल की तरह जुता ही रहता है एवं दौड़ लगाता ही रहता है। इस ही प्रकार के प्रयासों के कारण उसको पांच पाप के अतिरिक्त बाधक कारणों को हटाने के लिए क्रोध कषाय उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकती। थोड़ी सी सामग्री प्राप्त होते ही मानकषाय उत्पन्न होकर अपने-आपको दूसरों से ऊंचा दिखाने की एवं दूसरों को अपने से नीचा दिखाने की प्रवृत्ति जागृत हो जाती है। इसीप्रकार इच्छित सामग्री प्राप्त करने के लिए मायाचारी करके भी उसकी प्राप्ति हेतु निरन्तर प्रयासरत रहता है। प्राप्त सामग्री को बनाये रखने एवं तृष्णा की उग्रता होने से और भी ज्यादा बढ़ाने की इच्छा के कारण लोभकषाय हुए बिना नहीं रहती। इसप्रकार उपरोक्त मिथ्याश्रद्धा-विश्वास वाला जीव सभी प्रकार के पाप एवं सभी तरह की कषायें करने में जरा भी संकोच नहीं करता उल्टी आकुलतारूपी दुःख होने पर भी उसमें सुख मानता है। इस विश्वास के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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