Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 22
________________ २०] । सुखी होने का उपाय अर्थ :- मैं समीचीन धर्म को कहूँगा, वह धर्म कर्मों का ( राग द्वेषादि का ) अभाव करके प्राणिमात्र को संसाररूपी दुःख से छुड़ाकर उत्तम सुख को प्राप्त कराता है। भावार्थ यह है कि धर्म वही है जिसके धारण करने से आकुलतारूपी दुःख का अभाव होकर निराकुलता रूपी सुख की प्राप्ति हो। अत: सिद्ध होता है कि निराकुलतारूपी शांति को प्राप्त करने के लिए हमको उस धर्म का स्वरूप समझकर अपनाना चाहिए। धर्म का स्वरूप समझने के पहले यह समझना आवश्यक है कि जिस सुख को हमें प्राप्त करना है, वह सुख कहाँ है जहाँ से उसे प्राप्त किया जा सके ? सुख कहाँ है ? सामान्यता लौकिकजनों की ऐसी मान्यता है कि सुख तो जो सामग्री मिलती है उसमें से आता है, अत: सामग्री जुटाना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यह मान्यता गलत है। जैसे किसी को गुलाबजामुन खाने की इच्छा हुई और वह उसे मिल गयी तो वह मानने लगता है कि यह सुख गुलाबजामुन में से आया है, लेकिन विचारना चाहिए कि अगर यह मान्यता ठीक है तो एक गुलाबजामुन में से जितना सुख आया हो तो दस गुलाबजामुन के द्वारा दस गुना सुख मिलना चाहिए और खानेवाले को अर्थात् सुख के चाहने वाले को भी खाने से मना नहीं करना चाहिए। लेकिन प्रत्यक्ष देखने में आता है कि इच्छापूर्ति के बाद अगर उसको एक भी जबरदस्ती खिलाया जाये तो वह उसही गुलाबजामुन को खाते हुए दुःखी होने लगता है। विचारना चाहिए कि ऐसा क्यों होता है ? जब इसको सुखी होना है और जिसमें से सुख आ रहा है तो उसको शीघ्र से शीघ्र ज्यादा से ज्यादा प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। लेकिन होता इसके विपरीत है। दूसरी बात-अगर उस गुलाबजामुन में सुख है ही, तो उसको भीतर से देखना चाहिए कि वह सुख है कहाँ ? और उसमें से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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