Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 1 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 19
________________ वस्तु स्वभाव एवं विश्व व्यवस्था ] - [१७ और कौन-किसको-कैसे-कहाँ से पैदा कर देगा आदि-आदि। इस स्थान पर यह विषय चर्चा योग्य नहीं हैं, क्योंकि उपरोक्त चर्चा ही मात्र जीव की सत्ता का अनादि-अनन्त माननेवालों के लिए ही है-नास्तिक एवं चार्वाक मान्यताओं के लिये नहीं। जीव के भावों का फल जीव को अवश्य भोगना पड़ेगा उपरोक्त प्रकार से जीव की सत्ता अनादि-अनंत मानने पर यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जीव जो-जो भी अच्छे और बुरे भाव वर्तमान में करेगा उनका फल भी अच्छा और बुरा जरुर मिलना ही चाहिए अन्यथा सदाचार से रहने का एवं दुराचार छोड़ने का उपदेश भी क्यों दिया जाता है ? समाज भी दुराचारी को बुरा एवं सदाचारी को अच्छा क्यों कहता है? साथ ही सरकार भी दुराचारी को दण्ड और सदाचारी को पुरस्कृत क्यों करती है ? इसका अर्थ ही यह है कि जगत में सब कोई सदाचार को अच्छा और बुरे आचरण को बुरा मानते भी हैं और कहते भी हैं। इससे निष्कर्ष निकलता है कि अच्छे भाव करने योग्य होते हैं और बुरे भाव नहीं करने योग्य माने जाते हैं। ऐसी स्थिति में अगर कोई हमारे ऐसे बुरे भाव हों जो समाज के साथ ही सरकार की भी जानकारी में न आवें, तो क्या उस भाव करने वाले को कोई फल नहीं होना चाहिए? जरूर होना ही चाहिए, अन्यथा बुरे काम करने से कोई क्यों डरेगा? एवं अच्छे भाव करने से लाभ कौन मानेगा; फलत: उन भावों का फल तो उस जीव का होता ही है। यह स्वाभाविक भी है, बुरे भावों का फल वही होना चाहिए जो इसको स्वयं का अच्छा नहीं लगे और उसीप्रकार अच्छे भावों का फल वही होना चाहिए, जो इसको अच्छा लगे। अत: यह जीव जब-जब जैसे-जैसे भाव करता है तब-तब ही उसको उसही प्रकार के कर्म बंध जाते हैं । अच्छे भावों के फल में इसको जैसी ये चाहता है इच्छा करता है वैसी ही सामग्री प्राप्त होती ही रहती है, और बुरे भाव करते समय ही ऐसे कर्मों का बंध यह जीव करता है, जिसके फल में इस जीव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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