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सुधा टीका स्था० २ ० १ सृ०४ गायां द्वित्वनिरूपणम योगवजितसम्यग्दृष्टिकृता च भवति । सा चामधानगर्दा, द्रव्यगदम्याप्रधानार्थस्यात् । उक्तं च
अप्पाहन्नेऽवि इहं, कत्या दिट्ठो हु दव्यसदो नि ।
अंगारमहश्रो जह, दवायरिओ सयाऽभव्यो ॥ १॥ छाया-अप्राधान्येऽपि ह, कत्थते दृष्ट एव द्रव्यशब्द इति ।
अद्गारमर्दको यथा, द्रव्याचार्यः सदाऽभव्यः ॥ १ ॥ ___ उपयोगयुक्तस्य सम्यग्दृाटेस्तु भावगर्दा भवतीत्येवं चतुर्विधा नहीं । यहागर्हणीय भेदाद् गहाँ बहुविधा भवति । परंवत्र करणापेक्षया गर्दा द्विविधा प्रोयने-' मणसा वेगे गरिहइ ' इति । एकः कोऽपि साध्वादिः, मनमा या गहने-गद्य जुगुप्पते । इह वा शब्दो विकल्पार्थः । अवधारणार्थो वा, मनसेव ननु वाचा गर्हते इत्यर्थः । यथा-प्रसन्नचन्द्रराजर्पिः । वह दो नरहकी है मिथ्याष्टि जीव द्वारा कृत जो गर्दा है वह द्रव्यगर्दा है तथा उपयोग वजित सम्घरदृष्टि जीव द्वारा वृत भी द्रव्यगीं है यह गर्दा अप्रधान नहीं है क्यों कि द्रव्य शब्द अप्रधान अर्ध वाला है। कहा भी है-"अप्पाहन्ने" इत्यादि । उपयोगयुक्त सम्यग्दृष्टि जीवकी जो गुरु के समक्ष गीं है वह भावगहीं है इस प्रकार से नहीं चार प्रकार की है अथवा गहणीय के भेद से गर्दा यद्यपि घटुत प्रकार भी होती है परन्तु यहां करण की अपेक्षा से गीं दो प्रकार की कही गई है "मणसा वेगे गरिहई" कोइ एक साधु ऐसा भी होता है जो मन से ही गर्दा करता है इसका तात्पर्य ऐमा है कि प्रसन्न चन्द्र राज ऋषि की तरह कोई साधु मन से ही गहीं करता है वचन से गर्दा नहीं करता है भावगीं में प्रसन्नचन्द्र राजऋपि का दृष्टान्त हम प्रकार से हैગ કરાય છે તે ગહને દ્રવ્યગહ કહે છે તથા ઉપગ રહિત સમ્યગૃદૃષ્ટિ ઇવ દ્વારા કરાતી ગહ પણ દ્રવ્યગોં જ છે આ ગઈ અપ્રધાન ગહ છે, २५ है द्रव्य २०७४ समधान अथवाणा छ । पन्छ -" अपाहन " ઇત્યાદિ. ઉપગ યુક્ત સભ્ય દૃષ્ટિ જીવ દ્વારા ગુરુની સમક્ષ જે પિતાની ગઈ થાય છે તેને ભાવગહ કહે છે
આ રીતે ગઈ ચાર પ્રકારની કડી છે અધવા ગર્વીયના બેથી તે ગયાં અનેક પ્રકારની હોઈ શકે છે, પરન્ત ઠાં કરની અપેક્ષાએ ગઈ છે HERE . "गणसा येग गा" ना ५ सय મનથી ગઈ કરે છે. તેનો ભાવાર્થ આ પ્રમાણે છે