Book Title: Sramana 1997 01 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 7
________________ ४ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ २. लार ग्रन्थियों के कार्य-स्थगन से मुंह सूख जाता है। ३. चयापचय की क्रिया में तेजी आ जाती है। ४. श्वांस तेजी से चलने लगती है तथा हांफने लगते हैं। ५. यकृत द्वारा संगृहीत शर्करा को अतिरिक्त रूप से रक्त प्रवाह में छोड़ दिया जाता है, जिससे वह हाथ-पैर की मांस पेशियों तक पहुँच जाये। ६. शरीर में अधिक रक्त की आवश्यकता वाले भागों तक उसे पहुँचाने के लिए हृदय की धड़कन बढ़ जाती है। ७. रक्तचाप बढ़ जाता है। ८. विद्युत रासायनिक एवं स्रावों (Harmons) की ऊर्जा अधिक मात्रा में उत्पन्न होने लगती है। लेकिन आवश्यकतानुसार कार्य न होने से मांसपेशियों में तनाव के रूप में प्रतिबद्ध हो जाती हैं। ९. निरन्तर रक्तचाप उच्च रहने से दिल का दौरा या रक्ताघात (Heart attack or Brain Haemorrhage) हो जाता है। . १०. श्वांस की गति तीव्र रहने से दमा आदि श्वांस की बिमारियाँ उत्पन्न होती हैं। ११. एड्रीनालीन का स्राव बन्द होने से, हृदय की गति कम व रक्तवाहिनियाँ शिथिल , हो जाती हैं जिसके परिणाम स्वरूप बेहोशी आ जाती है। तनाव से उत्पन्न शारीरिक स्थितियों के सम्बन्ध में भारतीय एवं पाश्चात्य चिन्तकों में जो संख्यात्मक भेद है, वह भेद कोई विशेष अर्थ नहीं रखता। यदि देखा जाए तो चार्ल्सवर्थ और नाथन तथा युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा बतायी गयी उपर्युक्त शारीरिक स्थितियाँ एक दूसरे में समावेशित हो जाती हैं। तनाव के कारण तनाव उत्पन्न करने में कई तत्त्व काम करते हैं— सफलता, असफलता, लोभ, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या, अत्यधिक महत्त्वाकांक्षा आदि। पाश्चात्य चिन्तकों ने भी प्रायः तनाव के दो कारण माने हैं- १२ १. आन्तरिक कारण- तनाव के आन्तरिक कारणों में आन्तरिक प्रवृत्तियां तथा चिन्तन जो हमारे द्वारा अनुगमित होना चाहते हैं, को लिया गया है। २. बाह्य कारण- तनाव के बाह्य करणों में वे सभी बातें आती हैं जो तनाव उत्पन्न करती हैं, वे इसप्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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