Book Title: Sramana 1997 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 54
________________ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति में इङ्गित दृष्टान्त : ५१ मुझे जानते हो। विद्युन्माली ने कहा- आप शक्रादि इन्द्रों को कौन नहीं जानता है? तब देव ने कहा इस देवत्व से भिन्न पिछले जन्म के विषय में पूछता हूँ। विद्युन्माली के अनभिज्ञता प्रकट करने पर देव ने कहा कि मैं पूर्वभव में चम्पा नगरी का वासी नागिल था। तुमने पूर्वभव में मेरा कहना नहीं माना इसलिए अल्पऋद्धिवाले देवलोक में उत्पन्न हुए हो। विद्युन्माली ने पूछा- मुझे क्या करना चाहिए? अच्युत देव ने कहा- बोधि के निमित्त जिन-प्रतिमा का अवतारण करो। विद्युन्माली देवता की कृपा से चुल्लि हिमवंत पर जाकर गोशीर्षचन्दन की लकड़ी की प्रतिमा लाया। उसे रत्ननिर्मित समस्त सर्वाभूषणों से विभूषित किया और गोशीर्षचन्दन की लकड़ी की पेटी के मध्य रख दिया और विचार किया इसे कहाँ रखू। ___ इधर एक वणिक की नौका समुद्र-प्रवाह में फँस गयी और छ: मास तक फँसी रही। भयभीत और परेशान वणिक् अपने इष्ट देवता के नमस्कार की मुद्रा में खड़ा रहा। विद्युन्माली ने कहा- आज प्रात: काल यह वीतिभय नगर के तट पर प्रवाहित होगी। यह गोशीर्षचन्दन की लकड़ी वहाँ के उदायन राजा को भेंटकर इससे नये देवाधिदेव की प्रतिमा निर्मित करने के लिए कहना। देवकृपा से नौका वीतिभय पत्तन पहुँची। वणिक् ने राजा के पास जाकर देव के कहे अनुसार निवेदन किया। राजा ने भी नगरवासियों को एकत्र किया और वणिक् से ज्ञात-वृत्तान्त कहा। वणकुट्टग से प्रतिमा बनाने के लिए कहा गया। ब्राह्मणों ने देवाधिदेव ब्रह्म की प्रतिमा बनाने के लिए कहा। परन्तु कुठार से लकड़ी नहीं कटी। ब्राह्मणों ने कहा- देवाधिदेव विष्णु की प्रतिमा बनवाओ, फिर भी कुठार नहीं चली और इस प्रकार स्कन्ध रुद्रादि देवगणों का नाम लेने पर भी शस्त्र कार्य नहीं किया, सभी खिन हुए। रानी प्रभावती ने राजा को आहार के लिए बुलाया। राजा के नहीं आने पर प्रभावती देवी ने दासी भेजा। राजा के विलम्ब का कारण बताया। दासी से वृत्तान्त ज्ञात होने पर रानी ने विचार किया मिथ्यादर्शन से मोहित ये लोग देवाधिदेव से भी अनभिज्ञ हैं। प्रभावती स्नान कर कौतुक मङ्गलकर, शुक्ल परिधान धारणकर हाथ में बलि, पुष्प-धूपादि लेकर वहाँ गयी। प्रभावती ने बलि आदि सब कृत्य कर कहा- देवाधिदेव महावीर वर्द्धमान स्वामी हैं, उनकी प्रतिमा कराओ। इसके बाद कुठार से एक प्रहार में ही उस लकड़ी के दो टुकड़े हो गये। उसमें रखी हुई सर्वालङ्कारभूषिता भगवान् की प्रतिमा दिखाई पड़ी। घर के समीप निर्मित मन्दिर में राजा ने उस मूर्ति की प्रतिष्ठा करायी। कृष्णगुलिका नामक दासी मन्दिर में सेविका नियुक्त की गई। अष्टमी और चतुर्दशी को प्रभावती देवी भक्तिराग से स्वयं ही मूर्ति की पूजा करती थीं। एक दिन पूजा करती हुई रानी को राजा के सिर की छाया नहीं दीख पड़ी। उपद्रव की आशङ्का से भयभीत रानी ने राजा को सूचित किया। रानी ने उपाय सोचा कि जिनशासन की पूजा से मरण का भय नहीं रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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