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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७
एक दिन प्रभावती ने स्नान-कौतकादि क्रिया के बाद मन्दिर जाने हेत् शुद्ध वस्त्र लाने का दासी को आदेश दिया। उत्पात-दोष के कारण वस्त्र कुसुंभरंग से लाल हो गया। प्रभावती ने उन वस्त्रों को प्रणाम किया परन्तु उसमें रङ्ग लगा हुआ देखकर वह रुष्ट हो गई और दासी पर प्रहार किया, दासी की मृत्यु हो गयी। निरपराधिनी दासी के मर जाने पर प्रभावती पश्चात्ताप करने लगी कि दीर्घकाल से पालन किये गये मेरे स्थूलप्राणातिपातव्रत खण्डित हो गये, यही मुझ पर उत्पात है।
प्रभावती ने प्रव्रज्या-ग्रहण की आज्ञा हेतु राजा से विनती की। राजा की अनुमति से गृहत्यागकर उसने निष्क्रमण किया। छ: मास तक संयम का पालन कर, आलोचना और प्रतिक्रमण कर मृत्यु के पश्चात् वैमानिक देवों के रूप में उत्पन्न हुई।
राजा को देखकर, वह पूर्वभव के अनुराग से अन्य वेश धारण कर जैनधर्म की प्रशंसा करती है। तापस भक्त होने के कारण राजा उसकी बात स्वीकार नहीं करता था। (प्रभावती) देव ने तपस्वी वेश धारण किया। पुष्पफलादि के साथ राजा के समीप जाकर उसे एक बहुत ही सुन्दर फल भेंट की। वह फल अलौकिक, कल्पनातीत और अमृतरस के तुल्य था। राजा के पूछने पर तपस्वी ने, निकट ही तपस्वी के आश्रम में ऐसे फल उत्पन्न होने की सूचना दी। राजा ने तपस्वी-आश्रम और वृक्ष दिखाने का तपस्वी से अनुरोध किया।
मुकुट आदि समस्त अलङ्कारों से विभूषित हो वहाँ जाने पर राजा को वनखण्ड दिखाई पड़ा, उसमें प्रविष्ट होने पर आश्रम दिखाई पड़ा। आश्रम के द्वार पर राजा को ऐसा आभास हुआ मानो कोई कह रहा है- “यह राजा अकेले ही आया है। इसका वध कर इसके समस्त अलङ्कार ग्रहण कर लो। भयभीत राजा पीछे हटने लगा। तपस्वी भी चिल्लाया— दौड़ो-दौड़ो, यह भाग रहा है, इसे पकड़ो। तब सभी तपस्वी हाथ में कमण्डल लेकर मारो-मारो, पकड़ो-पकड़ो कहते हुए दौड़े। राजा भागने लगा।
भयभीत हो कर भागते हुए राजा को एक विशाल वनखण्ड दिखाई पड़ा। उसमें मनुष्यों का स्वर सुनाई पड़ा। उस वनखण्ड में प्रवेश करने पर राजा ने चन्द्र के समान सौम्य कामदेव के समान सौन्दर्ययुक्त, बृहस्पति के समान सर्वशास्त्र विशारद, बहुत से श्रमणों, श्रावकों, श्राविकाओं के समक्ष, धर्म का प्रवचन करते हुए एक श्रमण को देखा। राजा 'शरण-शरण' चिल्लाते हुए वहाँ गये। श्रमण ने कहा- भयभीत मत हो। ‘छोड़ दिये गये यह कहते हुए तपस्वी भी चला गया, राजा भी आश्वस्त हो गया। श्रमण से धर्म प्रवचन सुनकर राजा ने धर्म स्वीकार कर लिया।
परन्तु यथार्थ में राजा अपने सिंहासन पर ही बैठा था, वह कहीं गया ही नहीं था। उसने सोचा यह क्या है? आकाशस्थित (प्रभावती) देव ने बताया, यह सब (चमत्कार) मैंने तुझे प्रतिबोध देने के लिए किया था। 'तुम्हारा धर्म निर्विघ्न हो' यह कहकर देव
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