Book Title: Sramana 1997 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 65
________________ ६२ : श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९७ सम्म-गम्म, धर्म-कर्म, खप्प-तप्प आदि द्वित्वरूप शब्दों से छंद की तुकबंदी हुई है। इसी तरह वेण, सेण, जेण, नैण, रैण, हेण आदि शब्दों में 'ण' का अधिक प्रयोग हुआ है। उर्दू शब्द तसलीम (२७वें पद) से उर्दू का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इस तरह भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से यह रचना सहज, सरल और सुन्दर है तथा छन्द की दृष्टि से यह मनहर छंद (वर्णिक) के अति निकट प्रतीत होती है जो सरस, मनोहर और गेयरूप है। इस क्रम में आगे भी इस तरह की अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाओं को प्रकाशित करने का प्रयास किया जायेगा। इस पाण्डुलिपि के सम्पादन में प्रो०सागरमल जैन का सहयोग प्राप्त हुआ है जिसके लिये मैं उनकी हृदय से आभारी हूँ। अथ ३२ सवैये लिख्यते - (अणगार वंदना) - मुनि चन्द्रभाणकृत पाप पंथ परहरे, मोक्ष पंथ पग धरे, अभिमान नहीं करे , निंदा कुं निवारी है । संसार को छोड्यो संग, आलस नहीं छे अंग, ग्यान सेती राखे रंग, मोटा उपगारी है। मन माहि निरमल, जेहु है गंगा रो जल, काटै है करम दल, नौ तत्त्व धारी है। संजम की करे खप, वाराभेदी तपे तप्प, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है ।।१।। ज्ञान करी भरपूर, विकथा सुं रहे दूर, तपस्य करण सूर, मोटा अणगारी है। तरण तारण जाहाज, आत्मा दा सारे काज, दोष सेती आणै लाज, गुणा का भंडारी है। छोडे सब खोटी मत, चोखी राखे समकित , निरवद बोले सत, पाप परिहारी है। विरक्त रहे सदा, लोभ नहीं धरे कदा, ऐसे अणगार ताको, वंदना हमारी है।।२।। तन सहे शीत ताप, जिन जी का जपे जाप , कर्मदल देवे कांप, बहुत बिचारी है। छोड दिया धन-धान्य, भावे है विशुद्ध ध्यान , १. आरंभ (हिंसा) रहित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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