Book Title: Sramana 1997 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 76
________________ "जैन चम्पूकाव्य' एक परिचय : ७३ विशेषता यशस्तिलक के रचयिता सोमदेव सूरि हैं। ये प्रमुख तार्किक थे। इनके ग्रन्थों के अध्ययन से इस बात का स्पष्ट बोध हो जाता है कि ये बहुश्रुत विद्वान् थे। यथा-वेद, पुराण, धर्म, स्मृति, काव्य, दर्शन, आयुर्वेद, राजनीति, गजशास्त्र, अश्वशास्त्र, नाटक और व्याकरण आदि के यह मर्मज्ञ थे। इसीलिए इनका चम्पू वर्तमान में उपलब्ध सभी चम्पुओं से उत्कृष्ट सिद्ध हुआ। इसके बारे में स्वयं कवि ने लिखा है असहायमनादर्श रत्न रत्नाकरादिव । मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ।। (१/१४) यशस्तिलकचम्पू की अनेक विशेषताएँ हैं, जिनके कारण यह सभी जैन और जैनेतर चम्पू काव्यों में श्रेष्ठ है। इन काव्य का गद्य कादम्बरी के समान है। गद्यकाव्य की रचना में वाण के बाद सोमदेव का ही स्थान हो सकता है और पद्य रचना अत्यन्त सरल है। इसलिए अश्वघोष महाकवि की रचना के बाद इसे दूसरा स्थान मिल सकता है। संसार में नलचम्पू और भरतचम्पू का विशेष नाम है। नलचम्पू में राजा नल की कथा लिखी गयी है और भारतचम्पू में महाभारत की। दोनों चम्पुओं में कहीं-कहीं श्लेष का प्रयोग किया गया है किन्तु दोनों के श्लेष से यशस्तिलक का श्लेष कहीं श्रेष्ठ है। यशस्तिलक में सैकड़ों ऐसे शब्द आए हैं जो कोषों में भी नहीं हैं। कवि ने प्रसङ्गत: अपने पूर्ववर्ती अनेक महाकवियों के नामों का उल्लेख किया है। यथा- उर्व, भारवि, भवभूति, भर्तृहरि, भर्तृमेष्ठ, कण्ठ, गुणाढ्य, व्यास, भास, वोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ और राजशेखर जो इनके गहन अध्ययन का परिचायक है। मोक्ष का स्वरूप लिखते समय पृष्ठ २६९ आश्वास ६ में सैद्धान्तवैशेषिक, तार्किकवेशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, दशबलशिष्य, जैमिनीय, बार्हस्पत्य, वेदान्तवादी, शाक्यविशेष, कणाद, तथागत और ब्रह्माद्वैतवादी इन दार्शनिकों के मतों का उल्लेख किया है। बीच-बीच में ग्रन्थकार ने इस काव्य में नाटकों के समान रचना की है- (प्रकाशम्) अम्ब! न बालकेलिष्वपि मे कदाचित् प्रतिलोमतां गतासि। पृ० १४० आश्वास ४। राजा(स्वगतम्) अहो महिलानां दुराग्रहनिरवग्रहाणि परोपघाताग्रहाणि च भवन्ति प्रायेण चेष्टितानि। पृष्ठ १३५ आश्वास ४। यह रचना ग्रन्थकार के नाटक के अध्ययन को सूचित करती है। यह चम्पू सुभाषितों की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है निःसारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्ताहम् यादक कांस्ये प्रजायते ।।११४।। पृष्ठ १६२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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